Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा०१३-१४]
णयपरूवणं
२४३
"ण य दव्वट्ठियपक्खे संसारो णेव पज्जवणयस्सै । [ सासय वियत्तिवायी जम्हा ] उच्छेदवादीया ॥१८॥ सुहदुक्खसंपजोओ संभवइ ण णिच्चवादपक्खम्मि । एयंतुच्छेदम्मि वि सुहदुक्खवियप्पणमजुत्तं ॥१६॥ कम्मं जोअणिमित्तं बज्झइ कम्मट्ठिदी कसायवसा । अपरिणदुच्छिण्णेसु अ बंधट्टिदिकारणं णर्थिं ॥१०॥ बंधम्मि अपूरते संसारभओहदसणं मोझं । बंधेण विणों [ मोक्खसुहपत्थणा णत्थि मोक्खो य ॥१०१॥ तम्हा ] मिच्छादिट्ठी सव्वे वि णया सपक्खपडिबद्धा ।
अण्णोण्णणिस्सिया उण लहंति सम्मत्तसब्भावं ॥१०२॥" "द्रव्यार्थिक नयके पक्षमें संसार नहीं बन सकता है। उसीप्रकार सर्वथा पर्यायार्थिक नयके पक्षमें भी संसार नहीं बन सकता है, क्योंकि द्रव्यार्थिकनय नित्यव्यक्तिवादी है और पर्यायार्थिकनय उच्छेदवादी है ॥६॥"
"सर्वथा नित्यवादके पक्षमें जीवका सुख और दुःखसे सम्बन्ध नहीं बन सकता है। तथा सर्वथा अनित्यवादके पक्षमें भी सुख और दुःखकी कल्पना नहीं बन सकती है ॥९॥"
"योगके निमित्तसे कर्मबन्ध होता है और कषायके निमित्तसे बाँधे गये कर्ममें स्थिति पड़ती है। परन्तु सर्वथा अपरिणामी और सर्वथा क्षणिक पक्षमें बन्ध और स्थितिका कारण नहीं बन सकता है ॥१००॥"
"कर्मबन्धका सद्भाव नहीं मानने पर संसारसम्बन्धी अनेक प्रकारके भयका विचार करना केवल मूढ़ता है। तथा कर्मबन्धके बिना मोक्षसुखकी प्रार्थना और मोक्ष ये दोनों भी नहीं बनते हैं ॥१०१॥"
"चूंकि वस्तुको सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा अनित्य मानने पर बन्धादिकके कारणरूप योग और कषाय नहीं बन सकते हैं। तथा योग और कषायके मानने पर वस्तु सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा अनित्य नहीं बन सकती है इसलिये केवल अपने अपने पक्षसे प्रतिबद्ध
(१) संसारा ता०, अ०, आ० । (२)-स्स ( ७० १० ) उच्छेद-ता०, स० ।-स्स संसारदुःखसुखे ण वे वि उच्छेद-अ०, आ०। “णय दवट्ठियपक्खे संसारो णेव पज्जवणयस्स। सासयवियत्तिवायी जम्हा उच्छेदवादीया॥"-सन्मति० श१७। (३) दशवै०नि० गा०६०। सन्मति० १११८ (४) सन्मति० ।१९। (५) विणा (त्रु० १४) मिच्छादिट्ठी ता०, स०। विणा सोक्खं मोक्खं हि लहेइ संदिट्ठी ॥ सम्मामिच्छादिट्ठी अ०, आ० । "बंधम्मि अपरन्ते संसारभओघदसणं मोझं । बन्धं व विणा मोक्खसुहपत्थणा णत्थि मोक्खो य॥"-सन्मति० ११२०() "तम्हा सब्वे वि णया मिच्छादिठी सपक्खपडिबद्धा.." -सन्मति० श२१।
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