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गा०१३-१४)
णयपरूवणं एयदवियम्मि जे अत्थपजया वयापज्जया वा वि। तीदाणागदभूदो [ तावइयं तं हवइ दव्वं ] ॥१०॥ नयोपनयैकान्तानां त्रिकालानां समुच्चयः । अविभ्राड्भावसम्बन्धो द्रव्यमेकमनेकधा ॥१०॥ सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यर्वतिष्ठते ॥११०॥ घट-मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् ।
शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥११॥ यह अन्तिम विशेष सामान्यरूप सिद्ध होवे। इसलिये महासत्ता केवल द्रव्यार्थिकनयका और अन्तिम विशेष केवल पर्यायार्थिक नयका विषय रहा आवे । पर तत्त्वतः विचार करने पर अन्य अवान्तर सामान्य और विशेषोंके समान ये दोनों भी सापेक्ष हैं सर्वथा स्वतन्त्र नहीं हैं। यदि इन्हें सर्वथा स्वतन्त्र माना जाता है तो 'सभी पदार्थ सत्स्वरूप होनेके कारण अनेकान्तात्मक हैं' इस अनुमानमें दिया गया हेतु व्यभिचरित हो जाता है। अतः इस व्यभिचारके दूर करनेके लिये इन्हें यदि सापेक्ष माना जाता है तो महासत्ता द्रव्यार्थिकनयका
और अन्तिम विशेष पर्यायार्थिकनयका विषय होते हुए भी अपने विपक्षी नयोंकी अपेक्षा रखकर ही वे दोनों उन उन नयोंके विषय सिद्ध होते हैं ॥१०७॥
"एक द्रव्यमें अतीत, अनागत और वर्तमानरूप जितनी अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय होती हैं वह द्रव्य तत्प्रमाण होता है ॥१०॥"
"जो नैगमादि नय और उनकी शाखा उपशाखारूप उपनयोंके विषयभूत त्रिकालवर्ती पर्यायोंका अभिन्न सत्तासबन्धरूप समुदाय है उसे द्रव्य कहते हैं। वह द्रव्य कथंचित् एकरूप और कथंचित् अनेकरूप है ॥१०६॥"
“ऐसा कौन पुरुष है जो स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी अपेक्षा सभी पदार्थोंको सद्रूप ही न माने और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावकी अपेक्षा सभी पदार्थोंको असद्रूप ही न माने ? अर्थात् यदि स्वद्रव्यादिकी अपेक्षा पदार्थको सद्रूप
और परद्रव्यादिकी अपेक्षा असद्रूप न माना जाय तो किसी भी पदार्थकी व्यवस्था नहीं हो सकती है ॥११०॥"
"जो मनुष्य घट चाहता है वह घटके नष्ट हो जाने पर शोकको प्राप्त होता है, जो मनुष्य मुकुट चाहता है वह मुकुटके बन जाने पर हर्षको प्राप्त होता है और जो
(१)-म्मि वे अत्थ-अ०, आ०, स० । (२)-दा (त्रु० १२) नयो-ता०, स० ।-दा सव्वे (त्रु०१०) अ०, आ०। “एगदवियम्मि जे अत्थपज्जया वयणपज्जया वा वि। तीयाणागयभया तावइयं तं हवइ दव्वं ॥" -सन्मति० ११३१ । (३) आप्तमी० श्लो० १०७ । (४) भाप्तमी० श्लो० १५ । (५) आप्तमी० श्लो० ५९ ।
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