Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ णिबंधणो त्ति तेण णाम-हवणा-दव्व-णिक्खेवाणं तिण्हं पि तिण्णि वि दव्वष्टियणया सामिया होंतु णाम ण भावणिक्खेवस्स; तस्स पज्जवष्टियणयमवलंबिय (पवष्टमाणत्तादो)। उत्तं च सिद्धसेणेण
"णामं ठवणा दवियं ति एस दव्वट्ठियस्स णिक्खेवो ।
भावो दु पज्जवट्ठियस्सपरूवणा एस परमैत्थो ॥११॥" त्ति । तेण 'णेगम-संगह-ववहारा सव्वे इच्छंति' त्ति ण जुञ्जदे ? ण एस दोसो; वट्टमाणपज्जाएण उवलक्खियं दव्वं भावो णाम । अप्पहाणीकयपरिणामेसु सुद्धदव्वष्ठिएसुणएसु णादीदाणागयवट्टमाणकालविभागो अत्थि; तस्स पहाणीकयपरिणामपरिणम(-णय-)त्तादो।ण तदो एदेसु ताव अत्थि भावणिक्खेवो; वट्टमाणकालेण विणा अण्णकालाभावादो। वंजणपज्जाएण पादिददव्वेसु सुठ्ठ असुद्धदव्वटिएसु वि अत्थि भावणिक्खेवो, तत्थ वि तिकालस्वामी होओ, इसमें कुछ आपत्ति नहीं है । परन्तु भावनिक्षेपके उक्त तीनों द्रव्यार्थिकनय स्वामी नहीं हो सकते हैं, क्योंकि भावनिक्षेप पर्यायार्थिकनयके आश्रयसे होता है। सिद्धसेनने भी कहा है
"नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीनों द्रव्यार्थिकनयके निक्षेप हैं और भाव पर्यायार्थिकनयका निक्षेप है, यही परमार्थ-सत्य है ॥११॥" इसलिये 'नैगम, संग्रह और व्यवहारनय सब निक्षेपोंको स्वीकार करते हैं' यह कथन नहीं बनता है।
समाधान-यह दोष युक्त नहीं है, क्योंकि वर्तमान पर्यायसे युक्त द्रव्यको भाव कहते हैं, किन्तु जिनमें पर्यायें गौण हैं ऐसे शुद्ध द्रव्यार्थिक नयोंमें भूत, भविष्यत् और वर्तमानरूपसे कालका विभाग नहीं पाया जाता है; क्योंकि कालका विभाग पर्यायोंकी प्रधानतासे होता है। अतः शुद्ध द्रव्यार्थिक नयोंमें तो भावनिक्षेप नहीं बन सकता है, क्योंकि भावनिक्षेपमें वर्तमानकालको छोड़कर अन्य दो काल नहीं पाये जाते हैं। फिर भी जब व्यंजनपर्यायकी अपेक्षा भावमें द्रव्यका सद्भाव कर दिया जाता है अर्थात् त्रिकालवर्ती व्यञ्जनपर्यायकी अपेक्षा भावमें भूत भविष्यत् और वर्तमान कालका विभाग स्वीकार कर
(१)-य (त्रु० ११) उक्तञ्च ता०, स० ।-य तेणेवं वुच्चदे उक्तञ्च अ०, आ० । (२) सन्मति. श६ । "पर्यायाथिकनयेन पर्यायतत्त्वमधिगन्तव्यम् इतरेषां नामस्थापनाद्रव्याणां द्रव्याथिकनयेन सामान्यात्मकत्वात् ।"-सर्वार्थसि० १।६। त० श्लो० पृ० ११३। (३) “एत्थ परिहारो वुच्चदे पज्जाओ दुविहो अत्थवंजणपज्जायभेएण । तत्थ अत्थपज्जाओ एगादिसमयावट्ठाणो सण्णासण्णिसंबंधवज्जिओ अप्पकालावट्ठाणादो अइविसेसादो वा । तत्थ जो सो वंजणपज्जाओ जहण्णुक्कस्सेहि अंतोमुहत्तासंखेज्जलोगमेत्तकालावट्ठाणो अणाइअणंतो वा। तत्थ वंजणपज्जाएण पडिगाहियं दव्वं भावो होदि । एदस्स वट्टमाणकालो जहण्णुक्कस्सेहि अंतोमुहुत्तो संखेज्जालोगमेत्तो अणाइणिहणो वा अप्पिदपज्जायपढमसमयपहुदि आचरिमसमयादो एसो बट्ठमाणकालो त्ति णायादो । तेण भावकदीए दवट्ठियणयविसयत्तं ण विरुज्झदे ।"-4. आ० ५० ५५३ ।
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