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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [पेज्जदोसविहत्ती १ ___२०१. एवम्भवनादेवम्भूतः। अस्मिन्नये न पदानां समासोऽस्ति; स्वरूपतः कालभेदेन च भिन्नानामेकत्वविरोधात् । न पंदानामेककालवृत्तिः समासः; क्रमोत्पन्नानां क्षणक्षयिणां तदनुपपत्तेः । नैकार्थे वृत्तिः समासः; भिन्नपदानामेकार्थे वृत्त्यनुपपत्तेः । न वर्णसमासोऽप्यस्ति; तत्रापि पदसमासोक्तदोषप्रसङ्गात् । तत एक एव वर्ण एकार्थवाचक इति पैदगतवर्णमात्रार्थः एकार्थ इत्येवम्भूताभिप्रायवान् एवम्भूतनयः । सत्येवं
अर्थका वाचक है यह सिद्ध हो जाता है। और उसके सिद्ध हो जाने पर शब्दभेदसे अर्थभेद बन जाता है, जो कि समभिरूढनयका विषय है।
६२०१. एवंभवनात्' अर्थात् जिस शब्दका जिस क्रियारूप अर्थ है तद्रूप क्रियासे परिणत समयमें ही उस शब्दका प्रयोग करना युक्त है, अन्य समयमें नहीं, ऐसा जिस नयका अभिप्राय है उसे एवंभूतनय कहते हैं। इस नयमें पदोंका समास नहीं होता है, क्योंकि जो पद स्वरूप और कालकी अपेक्षा भिन्न हैं, उन्हें एक माननेमें विरोध आता है। यदि कहा जाय कि पदोंमें एककालवृत्तिरूप समास पाया जाता है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पद क्रमसे ही उत्पन्न होते हैं और वे जिस क्षणमें उत्पन्न होते हैं उसी क्षणमें विनष्ट हो जाते हैं, इसलिये अनेक पदोंका एक कालमें रहना नहीं बन सकता है। पदोंमें एकार्थवृत्तिरूप समास पाया जाता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न पदोंका एक अर्थ में रहना बन नहीं सकता है। तथा इस नयमें जिसप्रकार पदोंका समास नहीं बन सकता है उसीप्रकार घ, ट आदि अनेक वर्णोंका भी समास नहीं बन सकता है, क्योंकि अनेक पदोंके समास माननेमें जो दोष कह आये हैं वे सब दोष अनेक वर्षों के समास माननेमें भी प्राप्त होते हैं । इसलिये एवंभूतनयकी दृष्टिमें एक ही वर्ण एक अर्थका वाचक है। अतः घट आदि पदोंमें रहनेवाले घ्, ट् और अ, अ आदि वर्णमात्र अर्थ ही एकार्थ हैं इसप्रकारके अभिप्रायवाला एवंभूतनय समझना चाहिये।
(१) "येनात्मना भूतस्तेनैव अध्यवसाययति इत्येवम्भूतः । अथवा येनात्मना येन ज्ञानेन भूतः परिणतः तेनैवाध्यवसाययति ।"-सर्वार्थसि०, राजवा० १।३३। "इत्थम्भूतः क्रियाश्रयः"-लघी० श्लो०४४। प्रमाणसं. श्लो० ८३ । त० श्लो० पृ० २७४ । “एवं भेदे भवनादेवम्भूतः"-ध० सं० पृ० ९० । “वाचकगतवर्णभेदेन अर्थस्य वागाद्यर्थभेदेन गवादिशब्दस्य च भेदकः एवम्भूतः, क्रियाभेदेनार्थभेदक एवम्भूतः ।"-ध० आ० प० ५४४ । नयविव० श्लो० ९४ । प्रमेयक० पृ० ६८०। नयचक्र० गा० ४३ । “वंजणअत्थतदुभयं एवंभूओ विसेसेइ"-अनु० सू० १४५ । आ० नि० गा० ७५८ । “व्यञ्जनार्थयोरेवम्भूतः"-त० भा० ११३५ । "वंजणमत्थेणत्थं च वंजणेणोभयं विसेसेइ । जह घटसई चेष्टावया तहा तं पि तेणेव ॥"-विशेषा० गा० २७४३॥ सन्मति० टी० पू० ३१४ । प्रमाणनय० ७.४० । स्या० म० पृ० ३१५ । "शब्दानां स्वप्रवृत्ति निमित्तभूतक्रियाविष्टमथं वाच्यत्वेनाभ्युपगच्छन्नेवम्भूतः।"-जैनतर्कभा० पृ० २३ । (२) तुलना-"न पदानां समासोऽस्ति भिन्नकालवर्तिनां भिन्नार्थवर्तिनाञ्च एकत्वविरोधात् ।"-ध० सं० पृ० ९०। (३) “पदगतवर्णभेदाद्वाच्यभेदस्य अध्यवसायकोऽप्येवम्भूतः ।"-३० सं० पृ० ९० ।
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