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गा० १३-१४ ]
परूवणं
युक्त्यवष्टम्भबलेन प्रतिपन्नः पर्यायार्थिकनैगमः । द्रव्यार्थिकनयविषयं पर्यायार्थिकनयविषयञ्च प्रतिपन्नः द्रव्यपर्यायार्थिकनैगमः । एवं त्रिभिर्नैगमैः सह नव नयाः किन्न भवन्ति चेत् ? नैष दोषः इष्ट [ -त्वात्, नयानामियत्तासंख्यानियमाभावात् ] । उक्तश्च" जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवादा |
जावया वादा तावइया चेव होंति परसमया ॥ ९३||"
$ २०३. एते सर्वेऽपि नयाः एकान्तावधारणगर्भा मिथ्यादृष्टयः; एतैरध्यवसितवस्त्वभावात् । न च नित्यं वस्त्वस्तिः तत्र क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् । न नित्यं वस्तु प्रमाणविषयः प्राक् [ - तिपादितदोषानुषङ्गतस्तस्य प्रमाणविषयत्वायोगात् ] । नय है। ऋजुसूत्र आदि चारों पर्यायार्थिकनयोंके विषयको युक्तिरूप आधार से करनेवाला पर्यायार्थिकनैगमनय है । तथा द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनयके विषयको स्वीकार करनेवाला द्रव्यपर्यायार्थिकनैगमनय है । इसप्रकार तीन नैगमनयोंके साथ नौ नय क्यों नहीं हो जाते हैं अर्थात् नैगमके उक्त तीन भेदोंको संग्रहनय आदि छह नयोंमें मिला देने पर नयके नौ भेद क्यों नहीं माने जाते हैं ?
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समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि नयोंकी संख्याका नियम न होनेसे ये नौ भेद भी इष्ट हैं । कहा भी है
" जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही पर समय हैं ||१३|| "
२०३. ये सभी नय यदि परस्पर निरपेक्ष होकर वस्तुका निश्चय कराते हैं तो मिध्यादृष्टि हैं, क्योंकि एक दूसरेकी अपेक्षा के बिना ये नय जिस प्रकारकी वस्तुका निश्चय कराते है वस्तु वैसी नहीं है । उनमें सर्वथा नित्यवादी नय वस्तुका सर्वथा नित्यरूपसे निश्चय कराता है परन्तु वस्तु सर्वथा नित्य नहीं है, क्योंकि यदि पदार्थको सर्वथा नित्य माना जायगा तो उसमें क्रमसे अथवा एक साथ अर्थक्रिया नहीं बन सकती है । अर्थात् नित्य वस्तु न तो क्रम से ही कार्य कर सकती है और न एक साथ ही कार्य कर सकती है । तथा सर्वथा नित्य वस्तु प्रमाणका विषय भी नहीं हो सकती है, क्योंकि सर्वथा नित्य वस्तुको प्रमाणका विषय मानने पर पहले नित्य वस्तुके अस्तित्वमें जो दोष दे आये हैं उन दोषोंका
भा० १।३५ ।
(१) इष्टमनिष्टभेदविविक्तविकल्पसंव्यवहारार्थत्वात् । उक्तञ्च अ० आ० । इष्ट ( त्रु० १४ ) उक्तञ्च ता०, स० । 'नव नयाः क्वचिच्छूयन्ते इति चेत्; न; नयानामियत्तासंख्या नियमाभावात् " - घ० आ० प० ५४४ । (२) सम्मति० ३।४७ । (३) "अर्थक्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयोः । क्रमा*माभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता ।। " - लघी० का० ८ " क्रमेण युगपच्चापि यस्मादर्थक्रियाकृतः । न भवन्ति स्थिरा भावाः निःसत्त्वास्ते ततो मताः ॥ " - तत्त्वसं० पृ० १४३ । वादन्याय पृ० ७। हेतुवि० टी० प० १४२ । क्षणभङ्गसि० पृ० २० । अकलङ्क० टि० पृ० १३७] न्यायकुमु० टि० पृ० ८ । ( ४ ) प्राक् प्रयोगः प्रत्यभिज्ञानप्रत्ययः प्रशस्तमेव प्रत्यभिज्ञान - अ० आ० । प्राक् प्र ( त्रु० १९) प्रत्यभिज्ञान - ता०, स० ।
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