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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ पेज्जदोसविहत्ती ? भवितव्यमित्यभिप्रायवान् समभिरूढ इति चोद्धव्यः । अस्मिन्नये न सन्ति पर्यायशब्दाः प्रतिपदमर्थभेदाभ्युपगमात् । न च द्वौ शब्दावेकस्मिन्नर्थे वर्तेते; भिन्नयोरेकार्थे वृत्तिविरोधात् । न च समानशक्तित्वात्तत्र वर्तेते; समानशक्त्योः शब्दयोरेकत्वापत्तेः । ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेन भाव्यमिति । अथ स्यात्, न शब्दो वस्तुधर्मः; तस्य ततो भेदात् । नाभेदैः; भिन्नेन्द्रियग्राह्यत्वात् भिन्नार्थक्रियाकारित्वात भिन्नसाधनत्वात् उपायोपेयभावोपलम्भाच्च । न विशेष्याद्भिनं विशेषणम् अव्यवस्थापत्तेः। ततो न वाचकपदभेदसे अर्थमें भेद होना ही चाहिये इस अभिप्रायको स्वीकार करनेवाला समभिरूढ़नय है, ऐसा समझना चाहिये। इस नयमें पर्यायवाची शब्द नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि यह नय प्रत्येक पदका भिन्न अर्थ स्वीकार करता है अर्थात् यह नय एक पद एक ही अर्थका वाचक है ऐसा मानता है। इस नयकी दृष्टि में दो शब्द एक अर्थमें रहते हैं ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न दो शब्दोंका एक अर्थमें सद्भाव मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाय कि उन दोनों शब्दोंमें समान शक्ति पाई जाती है इसलिये वे एक अर्थमें रहते हैं, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि दो शब्दोंमें सर्वथा समान शक्ति मानी जायगी तो फिर वे दो नहीं रहेंगे एक हो जायेंगे। इसलिये जब वाचक शब्दोंमें भेद पाया जाता है तो उनके वाच्यभूत अर्थमें भेद होना ही चाहिये ।
शंका-शब्द वस्तुका धर्म तो हो नहीं सकता है, क्योंकि शब्दका वस्तुसे भेद पाया जाता है । शब्दका यदि वस्तुसे अभेद माना जाय सो भी नहीं है, क्योंकि शब्दका ग्रहण भिन्न इन्द्रियसे होता है और वस्तुका ग्रहण भिन्न इन्द्रियसे होता है, शब्द भिन्न अर्थक्रियाको करता है और वस्तु भिन्न अर्थक्रियाको करती है, शब्द भिन्न कारणसे उत्पन्न होता है और वस्तु भिन्न कारणसे उत्पन्न होती है तथा दोनोंमें उपाय-उपेयभाव पाया जाता है अर्थात् शब्द उपाय है और वस्तु उपेय है, क्योंकि शब्द के द्वारा वस्तुका बोध होता है। इसलिये शब्द और वस्तुका अभेद नहीं बनता है। शब्द और अर्थमें विशेषण-विशेष्य सम्बन्ध भी नहीं पाया जाता है, क्योंकि विशेष्यसे भिन्न विशेषण नहीं पाया जाता है। यदि विशेषणको विशेष्यसे भिन्न माना जाय तो विशेषण-विशेष्यभावकी व्यवस्था ही नहीं बन सकती है। इसप्रकार जब शब्द और अर्थका कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता तो शब्दके भेदसे अर्थमें भेद नहीं माना जा सकता है। गा० ७५८ । “सत्स्वर्थेषु असंक्रमः समभिरूढः ।"-त. भा० ११३५। "जं जं सण्णं भासइ तं तं चिय समभिरोहए जम्हा। सण्णंतरत्थविमहो तओ तओ समभिरूढो ति"-विशेषा० गा० २७२७ । सम्मति० टी० १० ३१३ । प्रमाणनय० ७३६। स्या० म० पृ० ३१४ । “पर्यायशब्देषु निरुक्तिभेदेन भिन्नमर्थं समभिरोहन् समभिरूढः ।"-जैनतर्क भा० १० २२ ।
(१) “न पर्यायशब्दाः सन्ति भिन्नपदानामेकार्थवृत्तिविरोधात् ।"-ध० सं० पृ० ८९। ध० आ० ५० ५४४ । (२) भव्यमिति अ०, ता० । (३) "नाभेदो वाच्यवाचकभावात् भिन्नेन्द्रियग्राह्यत्वात् भिन्न
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