Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पेज्जदोसविहत्ती १
$ १६८. शब्दोऽर्थस्य निस्सम्बन्धस्य कथं वाचक इति चेत् ? प्रमाणमर्थस्य निस्सम्बन्धस्य कथं ग्राहकमिति समानमेतत् ? प्रमाणार्थयोर्जन्यजनकलक्षणः प्रतिबन्धोऽस्तीति चेत्; न; वस्तुसामर्थ्यस्यान्यतः समुत्पत्तिविरोधात् । अत्रोपयोगी श्लोकः" स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गृह्यताम् ।
न हि स्वतोऽसती शक्ति (क्तिः) कर्तुमन्येन पार्यते ॥९२॥”
विशेषार्थ - - ऊपर जिन चार नयोंका वर्णन कर आये हैं वे शब्द की अपेक्षा विचार नहीं करते। इसलिये उनकी अपेक्षा एक पदार्थके अनेक नाम भी हो सकते हैं और अनेक पदार्थों का भी एक नाम हो सकता है । तथा शब्दोंका व्यवहार करते समय लिङ्ग, संख्या काल, कारक और उपसर्गकी अपेक्षा जो व्यभिचार आता है उसे भी वे दूर नहीं करते हैं । पर आगे तीन नय शब्दप्रधान हैं । इनमें किस शब्दका कब किस वस्तुके लिये प्रयोग करना चाहिये इसका मुख्यतासे विचार किया गया है। इनमें शब्दनय एक पदार्थ के पर्यायवाची नामोंको तो स्वीकार करता है पर उनमें लिङ्गादिकसे आनेवाले व्यभिचारको नहीं मानता है । यदि लिङ्ग और वचनादिकके भेदसे शब्दों में भेद पाया जाता है तो उनके वाच्यभूत अर्थ में भी भेद होना ही चाहिये यह इस नयका अभिप्राय है ।
१११८. शंका - शब्दका अर्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, तो वह अर्थका वाचक कैसे हो सकता है ?
समाधान-प्रमाणका अर्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं पाया जाता है फिर भी वह अर्थको कैसे ग्रहण करता है ? यह भी समान है । अर्थात् जैसे प्रमाण और अर्थका कोई सम्बन्ध न होने पर भी वह अर्थको ग्रहण कर लेता है वैसे ही शब्दका अर्थके साथ कोई सम्बन्ध न रहने पर भी शब्द अर्थका वाचक हो जाय, इसमें क्या आपत्ति है ?
शंका - प्रमाण और अर्थ में जन्य- जनकलक्षण सम्बन्ध पाया जाता है ।
समाधान- नहीं, क्योंकि वस्तुकी शक्तिकी अन्यसे उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है । अर्थात् जो वस्तु जैसी है उसको उसीरूपसे जाननेकी शक्तिको प्रमाण कहते हैं । वह शक्ति अर्थसे उत्पन्न नहीं हो सकती है। यहां इस विषय में उपयोगी श्लोक देते हैं
"सब प्रमाणों में स्वतः प्रमाणता स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि जो शक्ति पदार्थ में स्वतः विद्यमान नहीं है वह अन्यके द्वारा नहीं की जा सकती है ॥ ६२ ॥ "
सम्बन्धाभावात् ।”–सर्वार्थसि ० १ ३३ | " एवमादयो व्यभिचारा अयुक्ताः । कुतः ? अन्यार्थस्य अन्यार्थेन सम्बन्धाभावात् । यदि स्यात् घटः पटो भवतु पटः प्रासाद इति । तस्मात यथालिङ्गं यथासंख्यं यथासाधनादि च न्याय्यमभिधानम् ।" - राजवा० १।३३ । ध० आ० प० ५४३ । ध० सं० पृ० ८९ ।
(१) " नहि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन"-मी० श्लो० । (२) मी० श्लो० सू० २ श्लो० ४७ । तुलना - "स्वहेतुजनितोप्यर्थः परिच्छेद्यः स्वतो यथा । तथा ज्ञानं स्वहेतुत्थं परिच्छेदात्मकं स्वतः ॥ -
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