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गा० २]
कसायपाहुडस्स उवयारेण सुत्तत्तसिद्धी
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मि अत्थे जं द्विदं गाहासदमसीदं तम्हि गाहासदे असीदे त्ति घेत्तव्वं । जम्मि अत्थम्मि जदि सुत्तगाहाओ होंति ताओ सुत्तगाहाओ वोच्छामि । पुव्विल्लगाहासद्देण संबद्धो सुत्तसो पछिल्लए विगाहासदे जोजेयव्वो ।
"सुत्तं गणहरकहियं तय पत्तेयबुद्धकहियं च |
सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुव्विकहियं च ॥६७॥"
इदि वयणादो णेदाओ गाहाओ सुत्तं गणहर-पत्तेयबुद्ध-सुदकेवलि-अभिण्णदस पुच्चीसु शब्द के द्वारा कहे जानेवाले पदार्थ पृथक् पृथक् ग्रहण किये जायँगे इसलिये बहुवचन प्रयोग होगा, और जब सौ पदार्थ शतरूपसे ग्रहण किये जायँगे तब एकवचन प्रयोग भी बन जायगा । प्रकृतमें इसी दृष्टिको सामने रखकर शत शब्दको 'गाहासदे' इसतरह एक वचनके द्वारा कहा है ।
'वे एकसौ अस्सी गाथाएँ किसप्रकार की हैं, ऐसा पूछने पर वे एकसौ अस्सी गाथाएँ पन्द्रह अर्थाधिकारोंमें विभक्त हैं इसप्रकार ग्रहण करना चाहिये | उन एकसौ अस्सी गाथाओंमेंसे जिस अधिकार में जितनी सूत्रगाथाएँ पाई जाती हैं, उन सूत्रगाथाओं का मैं ( गुणधर आचार्य ) कथन करता हूँ । इस सूत्रगाथाके तृतीय पाद में स्थित गाथाशब्द के साथ संबद्ध सूत्रशब्द को पीछेके अर्थात् इसी सूत्रगाथाके चौथे पादमें स्थित गाथाशब्द में भी जोड़ लेना चाहिये ।
शंका- "जो गणधरके द्वारा कहा गया है वह सूत्र है । उसीप्रकार जो प्रत्येकबुद्धों के द्वारा कहा गया है वह सूत्र है । तथा जो श्रुतकेवलियोंके द्वारा कहा गया है वह सूत्र है और जो अभिन्नदसपूर्वियोंके द्वारा कहा गया है वह सूत्र है ॥ ६७ ॥" इस वचन के अनुसार ये एकसौ अस्सी गाथाएँ सूत्र नहीं हो सकती हैं, क्योंकि गुणधर भट्टारक न गणधर हैं, न प्रत्येकबुद्ध हैं, न श्रुतकेवली हैं और न अभिन्नदशपूर्वी ही हैं ।
(१) मूलारा० गा० ३४ | मूलाचा० ५|८०| " गणशब्देन द्वादशगणा ( यत्यादयो जिनेन्द्रसभ्याः ) उच्यन्ते तान् धारयन्तीति गणधराः । दुर्गतिप्रस्थिता हि तेन रत्नत्रयोपदेशेन धार्यन्ते । ते सप्तविधर्द्धिमुपगता: •• तैः गधिदं ग्रथितं सन्दृब्धम् । केवलिभिरुपदिष्टमर्थं ते हि ग्रथ्नन्ति । तथाभ्यधायि - ' अत्थं कहंति अरुहा गंथं गंथति गणधरा तेसिं' । तहेव तथैव । 'श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमात् परोपदेशमन्तरेण अधिगतज्ञानातिशयाः प्रत्येकबुद्धाः' 'दशपूर्वाण्यधीयमानस्य विद्यानुप्रवादस्था: क्षुल्लकविद्या महाविद्याश्च अंगुष्ठप्रसेनाद्याः प्रज्ञप्त्यादयश्च तैरागत्य रूपं प्रदर्श्य सामर्थ्य स्वकर्माभाष्य पुरः स्थित्वा 'आज्ञाप्यतां किमस्माभिः कर्त्तव्यम्' इति तिष्ठन्ति । तद्वचः श्रुत्वा न 'भवतीभिरस्माकं साध्यमस्ति' इति ये वदन्ति अविचलितचित्तास्ते अभिन्नदशपूर्विण: ।" - मूलारा० विजयो० । तुलना - " सूत्रग्रथो गणधरानभिन्नदशपूर्विणः । प्रत्येकबुद्धानध्येमि श्रुतकेवलिनस्तथा ॥” - अनगार० १|३| "कम्माण उवसमेण य गुरूवदेसं विणा वि पावेदि । सण्णाणतवप्पगमं जीव पत्ते बुद्धी सा ।।" - ति० प० प० ९४ | "रोहिणिपहुदीणमहाविज्जाणं देवदाउ पंचसया । अंगुटुपसेणाइं अरकअ विज्जाण सत्तसया || एत्तूण पेसणाइमग्रं ते दसमपुव्वपठणम्मि । णैच्छंति संजमं ताताजेत अभिण्णदसपुव्वी ॥ " - ति० प० प० ९३ ६० आ० प० ५२८ ।
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