________________
गा०१३-१४] अत्याहियारणिदेसो
१८६ ति एसो वि कत्तारणिदेसो ण होदि त्ति पुव्वं व परिहरेयव्यो। अहवा बे वि कत्तारणिदेसा चेव, बंधोदयाणं कत्तारभूदजीवेण सह एगत्तमुवगयाणं कत्तारभावुववत्तीदो।
* उवजोगे च ७। ६१५६. उवजोगे सत्तमो अत्थाहियारो । कुदो ? तत्थ सत्तंकुवलंभादो ७ । * चउठाणे च ८। ६ १५७. चउहाणे अट्ठमो अत्थाहियारो । कुदो ? सुत्ते अह्रकुवलंभादो ८ । * वंजणे च ९।
६ १५८. वंजणे णवमो अत्याहियारो। कुदो? जयिवसहचुण्णिसुत्तम्मि णवअंकुवलंभादोह।
* सम्मत्ते ति दसणमोहणीयस्स उवसामणा च १०, दंसणमोहणीयक्खवणा च ११ ।
१५६. सम्मत्ते त्ति एतत्पदं स्वरूपपदार्थकं गाथासूत्रस्थसम्यक्त्वशब्दस्यानुहै, अतः जिसप्रकार पहले बन्धक पदमें कर्तृनिर्देशका परिहार कर आये हैं उसीप्रकार वेदक पदमें भी कर्तृनिर्देशका परिहार कर लेना चाहिये। अथवा बन्धक और वेदक ये दोनों ही निर्देश कर्तृकारकमें लिये गये हैं, क्योंकि बन्ध और उदयका कर्ता जीव है और उसके साथ ये दोनों एकत्वको प्राप्त हैं अतएव इनमें भी कर्तृभाव बन जाता है। ___* उपयोग नामका सातवाँ अधिकार है ७।
१५६. उपयोग यह सातवाँ अर्थाधिकार है, क्योंकि 'उवजोगे च' इस पदके आगे सातका अंक पाया जाता है।
* चतु:स्थान नामका आठवाँ अर्थाधिकार है । ___ १५७. चतु:स्थान यह आठवाँ अर्थाधिकार है, क्योंकि 'चउट्ठाणे च' इस सूत्रके आगे आठका अंक पाया जाता है।
* व्यंजन नामका नौवाँ अर्थाधिकार है ।
६ १५८. व्यंजन यह नौवाँ अर्थाधिकार है, क्योंकि 'वंजणे च' इस चूर्णिसूत्रके आगे यतिवृषभ आचार्यके द्वारा स्थापित नौका अंक पाया जाता है।
* गाथासूत्रमें आये हुए 'सम्मत्त' इस पदसे दर्शनमोहनीयकी उपशामना नामका दसवाँ अर्थाधिकार लिया है १०, और दर्शनमोहनीयकी क्षपणा नामका ग्यारहवाँ अर्थाधिकार लिया है ११।।
६१५६. चूर्णिसूत्रमें स्थित 'सम्मत्त' यह पद स्वरूपवाची है अर्थात् आत्माके सम्यक्त्व नामक धर्मका वाची है, और गाथासूत्र में स्थित सम्यक्त्व शब्दका अनुकरणमात्र है।
शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org