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गा०१३-१४]
णयपरूवणं उत्पंद्यते; कारकप्रतिषेधे व्यापृतात्परस्माद् घटाभावविरोधात् । न पर्युदासो व्यतिरिक्त उत्पद्यते ततो व्यतिरिक्तघटोत्पत्तावर्पितघटस्य विनाशविरोधात् । नाव्यतिरिक्तः, उत्पन्नस्योत्पत्तिविरोधात् । ततो निर्हेतुको विनाश इति सिद्धम् । उक्तञ्च
"जातिरेव हि भावानां निरोधे हेतुरिष्यते ।
यो जातश्च न च ध्वस्तो नश्येत् पश्चात्स केन वैः॥१०॥ इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-प्रसज्यरूप अभाव तो परसे उत्पन्न हो नहीं सकता है, क्योंकि प्रसज्यरूप अभावमें क्रियाके साथ निषेधवाचक नका सम्बन्ध होता है, अर्थात्, इसमें 'मुद्र घटका अभाव करता है' इसका आशय होता है 'मुद्गर घटको नहीं करता है'। अतः जब मुद्गर प्रसज्यरूप अभावमें कारकके प्रतिषेध अर्थात् क्रियाके निषेध करने में ही व्याप्त रहता है तब उससे घटका अभाव माननेमें विरोध आता है। तात्पर्य यह है कि वह क्रियाका ही निषेध करता रहेगा, विनाशरूप अभावका कर्ता न हो सकेगा।
यदि कहा जाय कि पर्युदासरूप अभाव परसे उत्पन्न होता है, तो वह घटसे भिन्न उत्पन्न होता है या अभिन्न । भिन्न तो उत्पन्न होता नहीं है, क्योंकि, पर्युदाससे व्यक्तिरिक्त घटकी उत्पत्ति मानने पर विवक्षित घटका विनाश माननेमें विरोध आता है। अभिप्राय यह है कि पर्युदासरूप अभावकी उत्पत्ति घटसे भिन्न मानने पर घटका विनाश नहीं हो सकता है। यदि कहा जाय कि पर्युदासरूप अभाव घटसे अभिन्न उत्पन्न होता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो उत्पन्न हो चुका है उसकी पुनः उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है । अर्थात् जब पर्युदासरूप अभाव घटसे अभिन्न है तो घट और पर्युदासरूप अभाव दोनों एक वस्तु हुए और ऐसा होनेसे पर्युदासरूप अभावकी उत्पत्ति और घटकी उत्पत्ति एक वस्तु हुई। ऐसी अवस्थामें पर्युदासरूप अभावकी उत्पत्ति परसे मानने पर प्रकारान्तरसे परसे घटकी ही उत्पत्ति सिद्ध हुई, क्योंकि दोनों एक वस्तु हैं। किन्तु घट तो पहले ही उत्पन्न हो चुका है अतः उत्पन्नकी उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। इसलिये ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा विनाश निर्हेतुक है यह सिद्ध होता है। कहा भी है
"जन्म ही पदार्थोंके विनाशमें हेतु कहा गया है, क्योंकि जो पदार्थ उत्पन्न होकर अनन्तर क्षणमें नष्ट नहीं होता वह पश्चात् किससे नाशको प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् किञ्च, न वस्तु परतो विनश्यति, परसन्निधानाभावे तस्य अविनाशप्रसङ्गात् ।"-ध. आ० ५० ५४३ ।
(१) तुलना-'अथ क्रियानिषेधोऽयं भावं नैव करोति हि। तथाप्यहेतुता सिद्धा कर्तुहतुत्वहानितः ॥३६३॥" तथाहि प्रसज्यप्रतिषेधे सति नमः करोतिना सम्बन्धात 'अभावं करोति' भावं न करोति इति क्रियाप्रतिषेधादकर्तत्वं नाशहेतोः प्रतिपादितम् . . . ."-तत्वसं० ५० पृ० १३६ । न्यायकुमु० पृ० ३७८ । "यदाहुः-अप्राधान्यं विधेर्यत्र प्रतिषेधे प्रधानता। प्रसज्यप्रतिषेधोऽयं क्रियया सह यत्र नम् ॥"-साहित्यव० ७।४। (२) उत्पाद्य-स०। (३) निरोधो हे-आ०। (४) उद्धृतेयम्-नयचक्रवृ० प० ४९६ । १० आ० ५० ५४३ । सूत्र. शी०प० २४..
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