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गा० १३-१४ ]
णयपरूवणं
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सकता है और सर्वथा अनिष्पन्न ही। पूर्वकालीन निष्पत्तिकी अपेक्षा वह निष्पन्न भी है और उत्तरकालमें होनेवाली निष्पत्तिकी अपेक्षा वह अनिष्पन्न भी है। अत: उत्तरकालभाविनी निष्पत्तिकी अपेक्षा वर्तमानमें वह निष्पद्यमान भी होगी और पूर्वकालीन निष्पत्तिकी अपेक्षा वह निष्पन्न भी होगी। इसलिये इस नयकी दृष्टिमें कार्यरूप प्रत्येक पर्याय निष्पद्यमान-निष्पन्न कही जायगी । इसीप्रकार पच्यमान-पक्क, सिद्ध्यत्सिद्ध आदिरूप पर्यायोंके सम्बन्धमें भी समझ लेना चाहिये । तथा इस नयकी अपेक्षा जिस संज्ञासे जो क्रिया ध्वनित हो उस क्रियाके होते हुए ही वह पदार्थ उस संज्ञावाला कहा जायगा। एवंभूत नयका भी यही विषय है, इसलिये यद्यपि उपर्युक्त लक्षणके अनुसार इन दोनों नयोंके विषय में सांकर्य प्रतीत होता है । पर वस्तुतः दोनों ही नय वर्तमानकालीन पर्यायको ग्रहण करते हैं इसलिये वर्तमानकालीन पयार्यकी अपेक्षा इनके विषयमें कोई अन्तर नहीं है । अन्तर केवल शब्दप्रयोगके भेदसे होनेवाली मुख्यता और गौणताका है। ऋजुसूत्र नय शब्दभेदसे अर्थमें भेद नहीं करता है और शब्दादि नय उत्तरोत्तर शब्दादिके भेदसे अर्थमें भेद करते हैं। प्रकृतमें अन्य प्रकारसे ऋजुसूत्र नयका विषय नहीं दिखाया जा सकता था इसलिये शब्दकी व्युत्पत्ति द्वारा वर्तमान पर्याय ध्वनित की गई है। तथा इस नयकी दृष्टि में प्रत्येक कार्य स्वयं उत्पन्न होता है। जिसमें स्वयं उत्पन्न होनेकी सामर्थ्य नहीं है उसे अन्य कोई उत्पन्न भी नहीं कर सकता। अतएव इस नयकी अपेक्षा कुम्भकार, स्वर्णकार आदि नाम नहीं बनते हैं। कार्यकी उत्पत्तिमें दो प्रकारके कारणोंकी आवश्यकता होती है एक निमित्तकारण और दूसरे उपादान कारण । कुंभकी उत्पत्तिमें कुम्भके अनन्तर पूर्ववर्ती समयमें रहनेवाली मिट्टीकी पिण्ड पर्याय उपादान कारण है और कुम्हार, चक्र आदि सहकारी कारण हैं । इसप्रकार कार्यकारणभावकी व्यवस्था रहते हुए भी ऋजुसूत्रनय एकसमयवर्ती वर्तमान पर्यायको ग्रहण करनेवाला होनेके कारण कार्यकारणभावको नहीं स्वीकार करता है। जैसे, जो द्रव्य स्वयं कार्यरूप होता है उसकी समनन्तरवर्ती अवस्था कार्य और पूर्व अवस्था कारण कही जाती है। पर ऋजुसूत्रनय केवल वर्तमान अवस्थाको ही ग्रहण करता है इसलिये वह कुंभग्रहणके कालमें जिससे कुंभपर्याय उत्पन्न हुई उसे नहीं ग्रहण कर सकता है, क्योंकि पूर्ववर्ती पर्याय उसका विषय नहीं है। इसप्रकार कुंभग्रहणके कालमें उपादान कारणका ग्रहण नहीं होनेसे कुंभपर्याय इस नयकी दृष्टिमें निर्हेतुक कही जायगी। ऐसी अवस्थामें सहकारी कारणकी अपेक्षा कुंभकार यह व्यवहार कैसे बन सकता है अर्थात् नहीं बन सकता है। ठहरना और आना ये दो क्रियाएं एक कालवर्ती नहीं हैं, अतः ठहरे हुए पुरुषसे 'कहाँसे आ रहे हो' यह पूछना ऋजुसूत्र नयकी दृष्टिसे ठीक नहीं है, क्योंकि जिस समय प्रश्न किया गया उस समय वह आगमनरूप क्रियासे रहित है किन्तु वह किसी एक स्थानमें या स्वयं अपनेमें स्थित है । अतः वह कहींसे भी
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