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गा० १३-१४] णयपरूवणं
२२५ पदेशात् । ने कुम्भकारोऽस्ति । तद्यथा-न शिवकादिकरणेन तस्य स व्यपदेशः; शिवकादिषु कुम्भभावानुपलम्भात् । न कुम्भं करोति; स्वावयवेभ्य एव तनिष्पत्त्युपलम्भात् । न बहुभ्यः एकः घट उत्पद्यते तत्र योगपद्येन भूयोधर्माणां सत्त्वविरोधात् । अविरोधे वा न तदेकं कार्यम् ; विरुद्धधर्माध्यासतः प्राप्तानेकरूपत्वात् । न चैकेन कृतकार्य एव शेषसहकारिकारणानि व्याप्रियन्ते; तव्यापारवैफल्यप्रसङ्गात् । न चान्यत्र व्याप्रियन्ते; कार्यबहुत्वप्रसङ्गात् । न चैतदपि; एकस्य घटस्य बहुत्वाभावात् ।
१८७. स्थितप्रश्ने च कुतोऽद्यागच्छसीति, न कुतश्चिदित्ययं मन्यते तत्कालक्रि
इस नयकी दृष्टि में कुंभकार संज्ञा भी नहीं बन सकती है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-शिवक आदि पर्यायोंको करनेसे उनके कर्ताको 'कुंभकार' यह संज्ञा तो दी नहीं जा सकती है, क्योंकि कुम्भसे पहले होनेवाली शिवकादिरूप पर्यायोंमें कुम्भपना नहीं पाया जाता है । यदि कहा जाय कि कुम्हार कुम्भको बनाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अपने अवयवोंसे ही कुम्भकी उत्पत्ति देखी जाती है उसमें कुम्भकार क्या करता है अर्थात् कुछ भी नहीं करता है । यदि कहा जाय कि अनेक कारणोंसे एक घट उत्पन्न होता है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि घटमें एकसाथ अनेक धर्मोंका अस्तित्व मानने में विरोध आता है। अर्थात् जब घट बहुतसे कारणोंसे उत्पन्न होगा तो उसमें कारणगत अनेक धर्म प्राप्त होंगे। किन्तु एक घटमें अनेक धर्मोंका सत्त्व मानना विरुद्ध है । एक पदार्थमें एक साथ अनेक धर्मोंके रहने में कोई विरोध नहीं आता है यदि ऐसा माना जाय तो वह घट एक कार्य नहीं हो सकता है, क्योंकि विरुद्ध अनेक धर्मोंका आधार होनेसे वह एकरूप न रहकर अनेकरूप हो जायगा। यदि कहा जाय कि एक कारणसे किये गये कार्य में ही शेष सहकारी कारण व्यापार करते हैं। अर्थात् वह उत्पन्न तो एक उपादान कारणसे ही होता है किन्तु शेष सहकारी कारण उसीमें सहायता करते हैं, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जब एक उपादान कारणसे ही कार्य उत्पन्न हो जाता है तब शेष सहकारी कारणोंके व्यापारको निष्फलताका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि उपादान कारण घटसंबन्धी जिस कार्यको करता है उस कार्यसे अतिरिक्त उसी घटसंबन्धी अन्य कार्योंके करनेमें शेष सहकारी कारण अपना व्यापार करते हैं, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेसे एक ही घटमें कार्यबहुत्वका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि एक ही घटमें कार्यबहुत्वका प्रसंग प्राप्त होता है तो हो जाओ, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि एक घट अनेक कार्यरूप नहीं हो सकता है।। ___ १८७. ठहरे हुए किसी पुरुषसे 'आज कहांसे आ रहे हो' इसप्रकार प्रश्न करने
(१) 'कुम्भकाराभावः, शिविकादिपर्यायकरणे तदभिधानाभावात्, कुम्भपर्यायसमये च स्वावयवेभ्य एव निर्वत्तेः ।"-राजवा० ११३३ । घ० आ० ५० ५४३ । (२) पटः अ०। (३)-वैकल्य-अ०। (४) "स्थितिप्रश्ने च कूतोऽद्यागच्छसीति न कूतश्चिदित्ययं मन्यते ।"-राजवा० ११३३ । ध० आ० ५० ५४३ ।
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