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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ पक्वस्तु स्यात्पच्यमानः स्यादुपरतपाक इति । पच्यमान इति वर्तमानः, पक्क इत्यतीतः, तयोरेकस्मिन्नवरोधो विरुद्ध इति चेत् । न पाकप्रारम्भप्रथमक्षणे निष्पन्नांशेन पक्वत्वाविरोधात् । न च तत्र पाकस्य सर्वांशैरनिष्पत्तिरेव; चरमावस्थायामपि पाकनिष्पत्तेरभावप्रसङ्गात् । ततः पच्यमान एव पक्क इति सिद्धम् । तावन्मात्रक्रियाफलनिष्पत्त्युपरमापेक्षया स एव पक्कः स्यादुपरतपाक इति, अन्त्यपाकापेक्षया निष्पत्तेरभावात् स एव पच्यमान इति सिद्धम् । एवं क्रियमाणकृत-भुज्यमानभुक्त-बध्यमानबद्ध-सिद्धयत्सिद्धादयो योज्याः।
६१८६. तथा, यदैव धान्यानि मिमीते तदैव प्रस्थः; प्रतिष्ठन्तेऽस्मिन्निति प्रस्थव्यऔर कथंचित् उपरतपाक होता है।
शंका-पच्यमान यह शब्द वर्तमान क्रियाको और पक्क यह शब्द अतीत क्रियाको प्रकट करता है, इसलिये इन दोनोंका एक पदार्थ में रहना विरुद्ध है, अर्थात् ये दोनों धर्म एक पदार्थ में नहीं रह सकते हैं।
समाधान-नहीं, क्योंकि पाकप्रारंभ होने के पहले समयमें पके हुए अंशकी अपेक्षा पच्यमान पदार्थको पक्कधर्मसे युक्त मानने में कोई विरोध नहीं आता है। पाक प्रारंभ होने के पहले समयमें पाक बिल्कुल हुआ ही नहीं है यह तो कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर पाककी अन्तिम अवस्थामें भी पाककी प्राप्ति नहीं होगी। इसलिये जो पच्यमान है वही पक्क भी है यह सिद्ध होता है। तथा जितने रूपसे क्रियाफलकी उत्पत्तिकी समाप्ति हो चुकी है अर्थात जितने अंशमें वह पक चुकी है उसकी अपेक्षा वही वस्तु पक्क अर्थात् कथंचित् उपरतपाक है और अन्तिम पाककी समाप्तिका अभाव होनेकी अपेक्षासे अर्थात् पूरा पाक न हो सकनेकी अपेक्षासे वही वस्तु पच्यमान भी है ऐसा सिद्ध होता है। इसीप्रकार अर्थात् पच्यमान-पक्कके समान क्रियमाण-कृत, भुज्यमान-मुक्त, बध्यमानबद्ध और सिद्धयत्-सिद्ध आदि व्यवहारको भी घटा लेना चाहिये ।
६१८६. तथा ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा जिस समय प्रस्थसे धान्य मापे जाते हैं उसी समय वह प्रस्थ है, क्योंकि 'जिसमें धान्यादि द्रव्य स्थित रहते हैं उसे प्रस्थ कहते हैं' इस व्युत्पत्तिके अनुसार प्रस्थ संज्ञाकी प्रवृत्ति हुई है।
(१)-पत्तेरेव आ० । (२) "एवं क्रियमाणकृतभुज्यमानभुक्तबद्धयमानबद्धसिध्यत्सिद्धादयो योज्याः।" -राजवा० श३३ । ध० आ० ५० ५४३। (३) "तथा प्रतिष्ठन्तेऽस्मिन्निति प्रस्थ: यदेव मिमीते. अतीता. नागतधान्यमानासंभवात् ।' -राजवा० श३३ । ध. आ० ५० ५४३ । "उज्जुसुअस्स पत्थओ वि पत्थओ मेज्जं पि पत्थओ-ऋजसूत्रस्य निष्पन्न स्वरूपोऽर्थक्रियाहेतू: प्रस्थकोऽपि प्रस्थकः तत्परिच्छिन्नं धान्यादिकमपि वस्तु प्रस्थकः उभयत्र प्रस्थकोऽयमिति व्यवहारदर्शनात् तथाप्रतीतेः । अपरं चासौ पूर्वस्माद्विशुद्धत्वाद् वर्तमाने एव मानमेये प्रस्थकत्वेन प्रतिपद्यते नातीतानागतकाले तयोविनष्टानुत्पन्नत्वेनासत्त्वादिति ।"-अन० टी० सू० १४५। नयोप० श्लो० ६६ ।
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