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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती ? १८४. पर्यायार्थिकनयो द्विविध:--अर्थनयो व्यञ्जननयश्चेति । तत्र ऋजुसूत्रोऽर्थनयः। किमेष एक एवार्थनयः ? न; द्रव्यार्थिकानामप्यर्थनयत्वात् । कोऽर्थव्यजननययोर्भेदः १ वस्तुनः स्वरूपं स्वधर्मभेदेन भिन्दानोऽर्थनयः, अभेदको वा । अभेदरूपेण गौणमुख्यभावसे सभी नयोंके विषयको ग्रहण करता है। इसका कारण यह है कि वास्तवमें इस नयका विषय शब्दादिक की अपेक्षा होनेवाला उपचार है। जो कभी शब्दके निमित्तसे होता है, जैसे, 'अश्वत्थामा हतो नरो वा कुञ्जरो वा' यहाँ पर अश्वत्थामा नामक हाथीके मर जाने पर दूसरेको भ्रममें डालनेके लिये अश्वत्थामा शब्दका अश्वत्थामा नामक पुरुषमें भी उपचार किया गया है। कभी शीलके निमित्तसे होता है। जैसे, किसी मनुष्यका स्वभाव अतिक्रोधी देखकर उसे सिंह कहना। कभी कर्मके निमित्तसे होता है। जैसे, किसी राजाको राक्षसका कर्म करते हुए देखकर राक्षस कहना । कभी कार्यके निमित्तसे होता है। जैसे, प्राणधारणरूप अन्नका कार्य देखकर अन्नको ही प्राण कहना। कभी कारणके निमित्तसे होता है। जैसे, सोनेके हारको कारणकी मुख्यतासे सोना कहना । कभी आधारके निमित्तसे होता है । जैसे, स्वभावतः किसीको ऊंचा स्थान बैठनेके लिये मिल जानेसे उसे वहांका राजा कहना । कभी आधेयके निमित्तसे होता है। जैसे, किसी व्यक्तिके जोशीले भाषण देने पर कहना कि आज तो व्यासपीठ खूब गरज रहा है । आदि ।
$ १८४. पर्यायार्थिकनय दो प्रकारका है-अर्थनय और व्यंजननय । उनमेंसे ऋजुसूत्र अर्थनय है।
शंका-क्या यह एक ही अर्थनय है ? समाधान-नहीं, क्योंकि नैगमादिक द्रव्यार्थिक नय भी अर्थनय हैं। शंका-अर्थनय और व्यञ्जननयमें क्या भेद है ?
समाधान-उस वस्तुके स्वरूपमें वस्तुगत धर्मोंके भेदसे भेद करनेवाला अर्थनय है। अथवा, अभेदरूपसे वस्तुको ग्रहण करनेवाला अर्थनय है। इसका यह तात्पर्य है कि जो णिरुत्ती"-अनु० सूत्र० १५२। आ० नि० गा० ७५५ । "नकर्मानमहासत्तासामान्यविशेषविशेषज्ञानमिमीते मिनोति वा नकमः । निगमेषु वा अर्थबोधेषु कुशलो भवो वा नैगमः । अथवा नैक गमाः पन्थानो यस्य स नैकगमः।"-स्था० टी० पृ० ३७१। “निगमेषु येऽभिहिताः शब्दाः तेषामर्थः शब्दार्थपरिज्ञानञ्च देशसमग्रग्राही नेगमः। आह च-नैगमशब्दार्थानामेकानेकार्थनयगमापेक्षः। देशसमग्रमाही व्यवहारी नैगमो ज्ञेयः॥"-त० भा० १३५ । विशेषा० गा० २६८२-८३ । “धर्मयोः धर्मिणोः धर्मधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जनभावेन यद्विवक्षणं स नैकं गमो नैगमः।"-प्रमाणनय० ७७ । स्या० म० पृ० ३११ । जैनतर्कभा० पृ० २१ । तुलना-ध० आ० प० ५४३।
(१) “पर्यायाथिको द्विविधः अर्थनयः व्यञ्जननयश्चेति ।"-ध० सं० पृ० ८५ । तुलना-"चत्वारोऽर्थनया ह्येते जीवाद्यर्थव्यपाश्रयात् । त्रयः शब्दनयाः सत्यपदविद्यां समाश्रिताः ।"-लघी० का०७२ । चत्वारोऽश्रियाः शेषास्त्रयं शब्दतः ।"-सिद्धिवि०, टी० ५० ५१७ । राजवा० १० १८६ । नयविव० १० २६२ । 'अत्थप्पवरं सद्दोवसज्जणं वत्थुमुज्जुसुत्तं ता । सद्दप्पहाणमत्थोवसज्जणं सेसया विति ।"-विशेषा०
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