Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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२०८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नयः ॥७९॥” इति । ६१७३. किञ्च, न विधिज्ञानं नयः तस्यासत्त्वात् । कथम् ? अविषयीकृतप्रतिषेधस्य विधावेव प्रवर्तमानतया सङ्करभावमापन्नस्य जडेस्य बोधरूपतया सत्त्वविरोधात् । न प्रतिषेधज्ञानं नयः; तस्याप्यसत्त्वात् । कुतः निर्विषयत्वात् । कथं निर्विषयता ? नीरूपत्वतः विधिनिषेधात्मक पदार्थ, प्रमाणका विषय है। अतः वह प्रमाण है। तथा इस प्रमाणके विषयमें से किसी एक धर्मको मुख्य और दूसरेको गौण करके मुख्य धर्मके नियमन करने में जो हेतु है वह नय है जिसके विषयका दृष्टान्तके द्वारा समर्थन होता है ॥७८॥"
___ "स्याद्वाद अर्थात् प्रमाणके द्वारा विषय किये गये अर्थों के विशेष अर्थात् पर्यायोंका निर्दोष हेतुके बलसे जो द्योतन करता है वह नय है ॥७॥"
६१७३. तथा केवल विधिको विषय करनेवाला ज्ञान नय नहीं है। क्योंकि केवल विधिको विषय करनेवाले ज्ञानका अभाव है । अर्थात् ऐसा कोई ज्ञान ही नहीं है जो केवल विधिको ही विषय करता हो ।
शंका-केवल विधिको विषय करनेवाले ज्ञानका अभाव क्यों है ?
समाधान-क्योंकि जो ज्ञान प्रतिषेधको विषय नहीं करेगा वह विधिमें ही प्रवर्तमान होनेसे संकरभावको प्राप्त हो जायगा अर्थात् केवल विधिमें ही प्रवृत्ति करनेवाला ज्ञान सर्वत्र केवल विधि ही करेगा अतः वह जिसप्रकार अपनेमें ज्ञानत्व आदिका विधान करेगा उसी प्रकार जडत्व आदि पररूपोंका भी विधान करेगा। अतः ज्ञान और जड़में सांकर्य हो जायगा और इसीलिये उसका जड़से कोई भेद न रहनेसे वह जड़ हो जायगा। अतएव केवल विधिको विषय करनेवाले ज्ञानका ज्ञानरूपसे सत्त्व माननेमें विरोध आता है।
___ उसीप्रकार केवल प्रतिषेधको विषय करनेवाला ज्ञान भी नय नहीं है, क्योंकि केवल विधिज्ञानकी तरह केवल प्रतिषेध विषयक ज्ञानका भी सद्भाव नहीं पाया जाता है।
शंका-केवल प्रतिषेध विषयक ज्ञानका सत्त्व क्यों नहीं पाया जाता है ?
समाधान-क्योंकि वह निर्विषय है अर्थात् उसका कोई विषय नहीं है, अतः उसका सत्त्व नहीं पाया जाता है।
शंका-प्रतिषेधविषयक ज्ञान निर्विषय क्यों है ?
समाधान-क्योंकि केवल प्रतिषेधका कोई स्वरूप नहीं है इसलिये वह प्रमाण ज्ञानका नास्तित्वादि (दिः) दृष्टान्तसमर्थनो दृष्टान्ते घटादौ समर्थनं परं प्रति स्वरूपनिरूपणं यस्य, दृष्टान्तस्य वा समर्थनमसाधारणस्वरूपनिरूपणं येनासौ दृष्टान्तसमर्थनः।"-बहत्स्व० टी०।
(१) "सधर्मणैव साध्यस्य साधादविरोधतः । स्याद्वादप्रविभक्तार्थ ...."-आप्तमी० श्लो० १०६॥ "स्याद्वादः प्रमाणं कारणे कार्योपचारात् , तेन प्रविभक्ताः प्रकाशिता अर्थाः ते स्याद्वादप्रविभक्तार्थाः, तेषां विशेषाः पर्यायाः जात्यहेत्ववष्टम्भबलेन तेषां व्यञ्जकः प्ररूपकः यः स नय इति ।"-ध० आ० ५० ५४२। (२)-स्य स्वबोध-अ०, आ० । (३)-ता विरूप-अ०, आ०।
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