________________
गा० १३-१४ ] णयपरूवणं
२०७ __ १७२. किञ्च, न नयः प्रमाणम् , एकान्तरूपत्वात् , प्रमाणे चानेकान्तरूपसन्दर्शनात् । उक्तञ्च
"अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः ।
अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नयात् ॥७७॥ विधिर्विषक्तप्रतिषेधरूपः प्रमाणमत्रान्यतरत्प्रधानम् ।
गुणोऽपरो मुख्यनियामहेतुर्नयः स दृष्टान्तसमर्थनस्ते ॥७॥ दिककी अपेक्षा भेदवृत्ति तथा भेदोपचार रहता है वह विकलादेश है। द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा यद्यपि वस्तु एक है निरंश है फिर भी पर्यायार्थिकयनकी अपेक्षा उसमें भेदवृत्ति या भेदोपचार किया जाता है जो कि कालादिककी अपेक्षासे होता है। एक धर्मका जो काल है वही काल अन्य धर्मोंका नहीं हो सकता। एक धर्मका जो आत्मरूप है वही अन्य धर्मोंका नहीं हो सकता । एक धर्मका जो आधार है वही दूसरे धर्मोका नहीं हो सकता। एक धर्मका जो संबन्ध है वही अन्य धर्मोंका नहीं हो सकता। अस्तित्वका जो गुणिदेश है वही अन्य धर्मोंका नहीं हो सकता। एक धर्मके द्वारा जो उपकार किया जाता है वही अन्य धर्मोंके द्वारा नहीं किया जा सकता । जो एक धर्मका संसर्ग है वही अन्य धर्मोका नहीं हो सकता। एक धर्मका वाचक जो शब्द है वही अन्य धर्मोंका वाचक नहीं हो सकता । इसप्रकार भेदवृत्तिकी प्रधानतासे विकलादेश होता है। या इन आठोंकी अपेक्षा अभेदके रहते हुए भेदका उपचार करके विकलादेश होता है। इनमेंसे सकलादेश सुनयवाक्य होते हुए भी प्रमाणाधीन हैं क्योंकि उसके द्वारा अशेष वस्तु कही जाती है और विकलादेश दुर्नयवाक्य होते हुए भी नयाधीन है, क्योंकि उसके द्वारा कथंचित् एकान्तरूप वस्तु कही जाती है। तथा विकलादेशके प्रतिपादक वचनको दुर्नयवाक्य इसलिये कहा है कि उनमें सर्वथा एकान्तका निषेध करनेवाला 'स्यात्' शब्द नहीं पाया जाता है और नयाधीन इसलिये कहा है कि उनके द्वारा वक्ताका अभिप्राय सर्वथा एकान्तके कहनेका नहीं रहता है।
नय प्रमाण नहीं है इसे प्रकारान्तरसे दिखाते हैं
६१७२. नय एकान्त रूप होता है और प्रमाणमें अनेकान्तरूपका अवभास होता है, इसलिये भी नय प्रमाण नहीं है । कहा भी है
"हे जिन आपके मतमें अनेकान्त भी प्रमाण और नयसे सिद्ध होता हुआ अनेकान्तरूप है, क्योंकि प्रमाणकी अपेक्षा वह अनेकान्तरूप है और अर्पित नयकी अपेक्षा एकान्तरूप है॥७७॥"
"हे जिन आपके मतमें प्रतिषेधरूप धर्मके साथ तादात्म्यको प्राप्त हुआ विधि, अर्थात्
(१) तुलना-"न नयः प्रमाणं तस्यैकान्तविषयत्वात् .."-घ० आ० ५० ५४२। (२) बृहत्स्व० श्लो. १०३। (३) बृहत्स्व० श्लो० ५२। (४) “स दृष्टान्तसमर्थन इति । स नयो नयविषयः स्वरूपचतुष्टयादि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org