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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पेज्जदोसविहत्ती १
$१८०.अयं सर्वोऽपि द्रव्यप्रस्तारः सदादि-परमाणुपर्यन्तो नित्यः द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसस्वात् । न पर्यायस्तेभ्यः पृथगुत्पद्यतेः सत्तादिव्यतिरिक्त पर्यायानुपलम्भात् । न चोत्पत्तिरप्यस्ति; असतः खरविषाणस्येवोत्पत्तिविरोधात् । ततः असंदकरणात् उपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् शक्तस्य शक्यकरणात् कारणाभा (-णभा-) वाच्च सतः आविर्भाव एव उत्पादः, तस्यैव तिरोभाव एव विनाशः, इति द्रव्यार्थिकस्य सर्वस्य वस्तु नित्यत्वान्नोत्पद्यते न विनश्यति चेति स्थितम् । एतद्रव्यमर्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकैः । तद्भावलक्षणसामान्येनाभिन्नं सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च वस्त्वभ्युपगच्छन् द्रव्यार्थिक इति यावत् ।
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$१८०. सत्से लेकर परमाणु तक यह सब द्रव्यप्रस्तार (द्रव्यका फैलाव ) नित्य है, क्योंकि द्रव्यसे सर्वथा पृथग्भूत पर्यायोंकी सत्ता नहीं पाई जाती है । पर्याय द्रव्यसे पृथक उत्पन्न होती हैं, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सत्ता आदिरूप द्रव्यसे भिन्न पर्यायें नहीं पाईं जाती हैं । तथा सत्ता आदिरूप द्रव्यसे पर्यायों को पृथक् मान पर असतूरूप हो जाती हैं अतः उनकी उत्पत्ति भी नहीं बन सकती है । और खरविषाणकी तरह असत्रूप अर्थकी उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । तथा जो पदार्थ सत्रूप नहीं है वह किया नहीं जा सकता है, कार्यको उत्पन्न करनेके लिये उपादान कारणका ग्रहण किया जाता है, सबसे सबकी उत्पत्ति नहीं पाई जाती है, समर्थ कारण भी शक्य कार्यको ही करते हैं तथा पदार्थों में कार्यकारणभाव पाया जाता है, इसलिये सत्का आविर्भाव ही उत्पाद है और उसका तिरोभाव ही विनाश है ऐसा समझना चाहिये । इसप्रकार द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा से समस्त वस्तुएं नित्य हैं इसलिये न तो कोई वस्तु उत्पन्न होती है और न नष्ट होती है, यह निश्चित हो जाता है । इसप्रकार ऊपर कहा गया द्रव्य जिस नयका विषय है वह द्रव्यार्थिकनय है । तद्भावलक्षणसामान्यसे अभिन्न और सादृश्यलक्षण सामान्यसे भिन्न और अभिन्न वस्तुको स्वीकार करनेवाला द्रव्यार्थिक नय है, यह उपर्युक्त कथनका तात्पर्य समझना चाहिये ।
विशेषार्थ - द्रव्यार्थिकनय द्रव्यको विषय करता है । इस नयकी दृष्टिमें सभी वस्तुएँ नित्य हैं । न कोई वस्तु उत्पन्न होती है और न कोई वस्तु नष्ट होती है । वस्तुका अविर्भाव ही उत्पाद है और उसका तिरोभाव ही विनाश है पर्यायें भी द्रव्यसे पृथक् नहीं हैं, क्योंकि द्रव्यसे पृथक् पर्यायें पाई ही नहीं जाती हैं। यदि पर्यायको द्रव्यसे पृथक् माना जाय तो उसकी उत्पत्ति नहीं बन सकती है, क्योंकि जो वस्तु सर्वथा असत् है उसकी
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(१) तुलना - ' ' असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥”- सांख्यका० ९ । ( २ ) - कस्य वस्तुनः सर्वस्य वस्तुनित्य - स० । ( ३ ) " द्रव्यमर्थः प्रयोजनमस्येत्यसौ द्रव्यार्थिकः " - सर्वार्थसि० १४६ | "द्रव्येणार्थ: द्रव्यार्थः, द्रव्यमर्थो यस्येति वा, अथवा द्रव्यार्थिकः द्रव्यमेवार्थो यस्य सोऽयं द्रव्यार्थः " - नयचक्रवृ० प० ४ ।
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