________________
गा० १३-१४ ण्यपरूवणं
२१५ भव्याभव्यानुभयभेदेन, पुद्गलद्रव्यं षड्विधं बादरबादर-बादर-बादरसूक्ष्म-सूक्ष्मबादरसूक्ष्म-सूक्ष्मसूक्ष्मं चेति । अत्रोपयोगिनी गाथा
"पुढेवी जलं च छाया चउरिंदियविसय-कम्म परमाणू ।
छविहमेयं भणियं पोग्गलदव्वं जिणवरेहिं ॥८६॥" शेषद्रव्याणि चत्वारि धर्माधर्मकालाकाशभेदेन । एवं त्रयोदशविधं वा द्रव्यम् । एवमेतेन क्रमेण जीवाजीवद्रव्याणां भेदः कर्तव्यः यावदन्त्यविकल्प इति । बादरबादर, बादर, बादरसूक्ष्म, सूक्ष्मबादर, सूक्ष्म और सूक्ष्मसूक्ष्म । अब यहाँ पुद्गलके छह भेदोंके विषयमें उपयोगी गाथा दी जाती है
"जिनेन्द्रदेवने पृथिवी, जल, छाया, नेत्र इन्द्रियके सिवा शेष चार इन्द्रियों के विषय, कर्म और परमाणु इसप्रकार पुद्गलद्रव्य छह प्रकारका कहा है ।।८६॥"
विशेषार्थ-बादरबादर आदिके भेदसे ऊपर पुद्गलके छह भेद गिनाये हैं और गाथामें पृथिवी आदिके भेदसे पुद्गलके छह भेद गिनाये हैं सो इसका यह अभिप्राय है कि ऊपर जाति सामान्यकी अपेक्षा पुद्गलके जो छह भेद किये गये हैं गाथामें दृष्टान्तरूपसे उस उस जातिके पुद्गलका नामनिर्देश द्वारा ग्रहण किया गया है। अर्थात् जिस पुद्गलका छेदन भेदन किया जा सकता है तथा जिसे एक स्थानसे दूसरे स्थान पर ले जाया जा सकता है उसे बादरबादर कहते हैं। जैसे, पृथिवी। जिस पुद्गलका छेदन भेदन तो न किया जा सके किन्तु जिसे एक स्थानसे दूसरे स्थान पर ले जाया जा सके उसे बादर कहते हैं। जैसे, जल। जिस पुद्गलका न तो छेदन भेदन ही किया जा सके और न एक स्थानसे दूसरे स्थान पर ही ले जाया जा सके, किन्तु जो नेत्रका विषय हो उसे बादरसूक्ष्म कहते हैं । जैसे, छाया । नेत्रके बिना शेष चार इन्द्रियोंका विषय सूक्ष्मस्थूल है। जो द्रव्य देशावधि और परमावधिका विषय होता है वह सूक्ष्म है। जैसे, कार्मणस्कन्ध । और जो सर्वावधिज्ञानका विषय है वह सूक्ष्मसूक्ष्म है। जैसे, परमाणु ।
धर्म, अधर्म, काल और आकाशके भेदसे शेष द्रव्य चार प्रकारके हैं । इसप्रकार तीन प्रकारका जीवद्रव्य, छह प्रकारका पुद्गलद्रव्य और चार प्रकारका शेष द्रव्य सब मिलकर तेरह प्रकारका भी द्रव्य है। इस क्रमसे अन्तिम विकल्पपर्यन्त जीव और अजीव द्रब्योंके भेद करते जाना चाहिये।
(१) गो० जीव० गा०६०२ । "पुढवी जलं च छाया चारिदियविसय कम्मपाओगा। कम्मातीदा एवं छब्भेया पोग्गला होति"-पञ्चा० पृ० १३०, जयसे । तुलना-“अइथूलथूलथूलं थूलं सुहुमं च सुहुमथूलं च । सुहुमं अइसुहुमं इदि धरादियं होदि छन्भयं ॥ भूपव्वदमादीया भणिदा अइयूलथूलमिदिखंधा । थूला इदि विण्णेया सप्पीजलतेलमादीया ॥ छायातवमादीया थूलेदरखंधमिदि वियाणाहि । सुहुमथूलेदि भणिया खंधा चउरक्ख विसया य ॥ सुहुमा हवंति खंघा पावोगा कम्मवग्गणस्स पुणो। तव्विवरीया खंधा अइसुहुमा इदि परूवेदि ॥"-नियम० गा० २१-२४। (२) एवमनेन अ०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org