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गा० १३-१४ ]
णयपरूवणं
प्रसजेदिति चेत्; न; नयस्य विषयप्रदर्शनार्थमुक्तेः ।
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१७८. द्विविधं वा द्रव्यं जीवाजीवद्रव्यभेदेन । चेतनालक्षणो जीवः । स च एकः; चेतनाभावेन भेदाभावात् । तद्विपरीतोऽजीवः । सोऽप्येकः निश्चेतनत्वेन भेदाभावात् । न तावन्योन्यव्यवच्छेदकौ; इतरेतराश्रयदोषानुषङ्गात् । न स्वतः स्वस्य व्यवच्छेदेकौ; एकस्मिन् तद्विरोधात् । न च तयोः साङ्कर्यम्; चेतनाचेतनयोः साङ्कर्यविरोधात् । ततः स्वभावाद्द्द्विविधं द्रव्यमिति सिद्धम् । न च स्वभावः परपर्यनुयोगार्हः ; अतिप्रसङ्गात् ।
समाधान-
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न- नहीं, क्योंकि नयका विषय बतलानेके लिये ही यह कथन किया गया है । $ १७८. अथवा, जीवद्रव्य और अजीवद्रव्यके भेदसे द्रव्य दो प्रकारका है । उनमें से जिसका लक्षण चेतना है वह जीव है । वह जीवद्रव्य चैतन्य सामान्यकी अपेक्षा एक है, क्योंकि चेतनारूपसे उसमें कोई भेद नहीं पाया जाता है । जीवके लक्षणसे विपरीत लक्षणवाला अजीव है, अर्थात् जिसका लक्षण अचेतना है वह अजीव है । वह भी अचैतन्य सामान्यकी अपेक्षा एक है, क्योंकि अचैतन्य सामान्यकी अपेक्षा उसमें कोई भेद नहीं पाया जाता है । जीव और अजीव द्रव्य परस्पर में एक दूसरेका व्यवच्छेद करके रहते हैं सो भी नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर इतरेतराश्रय दोषका प्रसंग प्राप्त होता है । अर्थात् अजीव द्रव्य से व्यवच्छेद होने पर जीवद्रव्यकी सिद्धि होगी और जीवद्रव्यसे व्यवच्छेद होने पर अजीव द्रव्यकी सिद्धि होगी । ये दोनों द्रव्य स्वतः अपने व्यवच्छेदक हैं ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक पदार्थ में व्यवच्छेद्य-व्यवच्छेदकभावके माननेमें विरोध आता है । यदि कहा जाय कि ये दोनों द्रव्य जब एक दूसरेका व्यवच्छेद करके नहीं रहते हैं तो इन दोनों में सांकर्य हो जायगा, अर्थात् जीव अजीवरूप और अजीव जीवरूप हो जायगा । सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि चेतन और अचेतन ये दोनों द्रव्य स्वभावसे पृथक् पृथक् हैं, इसलिये इनका सांकर्य माननेमें विरोध आता है, इसलिये स्वभावसे ही दो प्रकारका द्रव्य है यह सिद्ध हो जाता है । और स्वभाव दूसरेके द्वारा प्रश्नके योग्य होता नहीं है, क्योंकि अग्नि उष्ण क्यों है, जल शीतल क्यों है, इसप्रकार यदि स्वभाव के
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विषय में ही प्रश्न होने लगे तो अतिप्रसंग दोष प्राप्त होता है ।
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विशेषार्थ - जीवका चेतनरूप स्वभाव ही जीवको अजीवसे पृथक् सिद्ध कर देता है । उसीप्रकार अजीवका अचेतनरूप स्वभाव ही अजीवको जीवसे पृथक् सिद्ध कर देता है । चेतनत्व और अचेतनत्व जब कि जीव और अजीवके स्वभाव ही हैं तो वे स्वभावसे ही अलग अलग हैं। उन्हें एक दूसरेका व्यवच्छेदक मानना ठीक नहीं है । इसप्रकार जीव और अजीव ये दोनों द्रव्य स्वभावसिद्ध हैं यह जानना चाहिये ।
(१) "सर्वं द्विविधं वस्तु जीवाजीवभावाभ्यां विधिनिषेधाभ्यां मूर्त्तामूर्त्तत्वाभ्यामस्तिकायानस्तिकायभेदाभ्याम् " - ध० आ० प० ५४२ । ( २ ) - दको ए-आ० ।
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