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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ त्वविरोधात् । न चैकस्मिन् व्यवच्छेद्य-व्यवच्छेदकभावोऽस्तीत्यभ्युपगन्तुंयुक्तम् ; द्वित्वनिवन्धनस्य तस्यैकत्वेऽसंभवात् । नाभावो भावस्य व्यवच्छेदकः; नीरूपस्यार्थक्रियाकारित्वविरोधात् । अविरोधे वा व्यवच्छिन्नाव्यवच्छिन्नविकल्पद्वयं नातिवर्तते । नाव्यवच्छिन्नः व्यवच्छिनत्ति; एकत्वमापत्रस्य व्यवच्छेदकत्वविरोधात । न व्यवच्छिन्नो व्यवच्छिनत्ति; स्वपरविकल्पद्वयानतिवृत्तेः । न स्वतः; साध्येऽपि तथा प्रसङ्गात् । न परतः; अनवस्थाप्रसङ्गात् । ततस्सत्ता एकैवेति सिद्धम् । सत्येवं सकलव्यवहारोच्छेदः
समाधान-नहीं, क्योंकि देशादिक सत्तासे अभिन्न हैं, इसलिये वे सत्ताके व्यवच्छेदक अर्थात् भेदक नहीं हो सकते हैं । अर्थात् देशादिक स्वयं सत्स्वरूप हैं, अतः उनके निमित्तसे सत्तामें भेद नहीं हो सकता है। तथा एक ही वस्तुमें व्यवच्छेद्य-व्यवच्छेदक भाव मानना युक्त भी नहीं है, क्योंकि वह दोके निमित्तसे होता है इसलिये उसका एकमें पाया जाना संभव नहीं है। यदि कहा जाय कि अभाव भावका व्यवच्छेदक होता है सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अभाव स्वयं नीरूप अर्थात् स्वरूपरहित है, इसलिये उसे व्यवच्छेदरूप अर्थक्रियाका कर्ता माननेमें विरोध आता है। अर्थात् वह भेदरूप अर्थक्रिया नहीं कर सकता है। यदि कहा जाय कि स्वयं नीरूप होते हुए भी अभाव अर्थक्रियाका कर्ता है ऐसा माननेमें कोई विरोध नहीं आता है तो उसके संबन्धमें निम्न दो विकल्प हुए बिना नहीं रहते । वह अभाव भावसे व्यवच्छिन्न अर्थात् भिन्न है कि अव्यवच्छिन्न अर्थात् अभिन्न ? स्वयं अव्यवच्छिन्न अर्थात् अभिन्न हो कर तो अभाव भावका व्यवच्छेदक हो नहीं सकता, क्योंकि जो स्वयं भावसे अभिन्न है उसे व्यवच्छेदक मानने में विरोध आता है। तथा व्यवच्छिन्न होकर भी अभाव भावका व्यवच्छेदक नहीं हो सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर 'अभाव भावसे स्वतः व्यवच्छिन्न है या परकी अपेक्षा व्यवच्छिन्न है' ये दो विकल्प हुए बिना नहीं रहते । अभाव स्वतः तो व्यवच्छिन्न हो नहीं सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर साध्यमें भी इसीप्रकारका प्रसंग प्राप्त होता है। अर्थात् जिसप्रकार अभाव स्वतः व्यवच्छिन्न है उसीप्रकार सत्ता भी स्वतः व्यवच्छिन्न हो जायगी। अत: फिर अभावको उसका व्यवच्छेदक माननेकी कोई आवश्यकता नहीं रहती। तथा अभाव परकी अपेक्षा भी व्यवच्छिन्न नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अनवस्था दोषका प्रसंग प्राप्त होता है। अर्थात् वह पर भी किसी दूसरे परसे व्यवच्छिन्न होगा और वह पर भी किसी तीसरे परसे व्यवच्छिन्न होगा, इसप्रकार उत्तरोत्तर विचार करने पर अनवस्था दोष प्राप्त होता है। इसप्रकार अभाव भी सत्ताका व्यवच्छेदक सिद्ध नहीं होता है, इसलिये सत्ता एक ही है, यह सिद्ध हो जाता है ।
__ शंका-सत्ताको सर्वथा एक मानने पर देशादिके भेदसे होनेवाले सकल व्यवहारोंका उच्छेद प्राप्त होता है ?
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