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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेजदोसविहत्ती ? गिन्यौ गाथे
"तित्थयरवयणसंगहविसेसपत्थारमूलवायरणी। दव्वढिओ य पज्जवणओ य सेसा घियप्पा सिं ॥७॥ मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उजुसुद्दवयणविच्छेदो।
तस्स उ सद्दादीया साहपसाहा सुहुमभेया ॥८॥" "तीर्थकरके वचनोंकी सामान्य राशिका मूल व्याख्यान करनेवाला द्रव्यार्थिकनय है और उन्हींके वचनोंकी विशेष राशिका मूल व्याख्यान करनेवाला पर्यायार्थिक नय है। शेष सभी नय इन दोनों नयोंके विकल्प हैं ॥७॥"
विशेषार्थ-द्रव्यार्थिक नय अभेदगामी दृष्टि और पर्यायार्थिक नय भेदगामी दृष्टि है। मनुष्य जो कुछ बोलता या विचार करता है उसमेंसे कुछ विचार या वचन अभेदकी ओर झुकते हैं और कुछ विचार या वचन भेदकी ओर झुकते हैं। अभेदकी ओर झुके हुये विचार और तन्मात्र कही गई वस्तु संग्रह-सामान्य कही जाती है । तथा भेदकी ओर झुके हुए विचार और तन्मात्र कही गई वस्तु विशेष कही जाती है। अवान्तर भेदोंका या तो सामान्यमें अन्तर्भाव हो जाता है या विशेषमें । इसलिये मूल राशि दो ही हैं। उन्हीं दो राशियोंको क्रमसे संग्रहप्रस्तार और विशेषप्रस्तार कहा है। तीर्थंकरके वचन मुख्यरूपसे इन दो राशियोंमें आजाते हैं। उनमेंसे कुछ तो सामान्यबोधक होते हैं और कुछ विशेषबोधक । इसप्रकार इन दो राशियोमें समाविष्ट होनेवाले तीर्थंकरके वचनोंके व्याख्यान करनेमें भी दो ही दृष्टियां होती हैं। सामान्य वचनराशिका व्याख्यान करनेवाली जो अभेदगामी दृष्टि है उसे द्रव्यार्थिक नय कहते हैं और विशेष वचनराशिका व्याख्यान करनेवाली जो भेदगामी दृष्टि है उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं। ये दोनों ही नय समस्त विचार और विचारजनित समस्त शास्त्रवाक्योंके आधारभूत हैं, इसलिये ये समस्त शास्त्रोंके मूल वक्ता कहे गये हैं। शेष संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द आदि इन दोनों नयोंके अवान्तर भेद हैं।
"ऋजुसूत्रवचन अर्थात् वर्तमानवचनका विच्छेद जिस कालमें होता है वह काल पर्यायार्थिक नयका मूल आधार है । और उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेदरूप शब्दादिक नय उसी ऋजुसूत्र नयकी शाखा प्रशाखाएं हैं ॥८॥" तस्य विच्छेदः ऋजुसूत्रवचनविच्छेदः स कालो मूल आधारो येषां नयानां ते पर्यायाथिकाः । ऋजुसूत्रवचनविच्छेदादारभ्य आ एकसमयाद् वस्तुस्थित्यध्यवसायिनः पर्यायाथिका इति यावत् ।'-ध० सं० पृ० ८५। 'परि समन्तादायः पर्यायः, पर्याय एवार्थः कार्यमस्य न द्रव्यम्, अतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् स एवैकः कार्यकारणव्यपदेशभागिति पर्यायाथिकः।"-राजवा० १३३ ।
(१) सन्मति० १॥३॥ तुलना-"ततस्तीर्थकरवचनसंग्रहविशेषप्रस्तारमूलव्याकारिणौ द्रव्यपर्यायाथिको निश्चेतब्यौ।"-लघी० स्व० पृ० २३ । (२) सन्मति० ११५ ।
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