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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? तत्वात् । “अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जाल्ययुक्त्यपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नयः ॥८२॥” इति । अयं वाक्यनयः सारसंग्रहीयः । “ प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः ॥८३॥" अयं वाक्यनयः तत्त्वार्थभाष्यगतः । अस्यार्थ उच्यते-प्रकर्षेण मानं प्रमाणं सकलादेशीत्यर्थः, तेन प्रकाशितानां प्रमाणपरिगृहीतानामित्यर्थः, तेषामर्थानामस्तित्वनास्तित्व-नित्यानित्याद्यनन्तात्मनां जीवादीनां ये विशेषाः पर्यायाः, तेषां प्रकर्षण रूपकः प्ररूपकः निरुद्धदोषानुषङ्गद्वारेणेत्यर्थः स नयः ।
६ १७५. "प्रमाणव्यपाश्रयेपरिणामविकल्पवशीकृतार्थविशेषप्ररूपणप्रवणः प्रणिधिर्यः स नयः॥८४॥” इति । अयं वाक्यनयः पँभाचन्द्रीयः। अस्यार्थः-य:प्रमाणव्यपाश्रयः तत्परिणामविकल्पवशीकृतानामर्थविशेषाणां प्ररूपणे प्रवणः, प्रणिधानं प्रणिधिःप्रयोगो व्यवहारात्मा स नयः ।
____ "अनन्तपर्यायात्मक वस्तुकी किसी एक पर्यायका ज्ञान करते समय निर्दोष युक्तिकी अपेक्षासे जो दोषरहित प्रयोग किया जाता है वह नय है।८२॥" यह वाक्यनयका लक्षण सारसंग्रह ग्रन्थका है। “जो प्रमाणके द्वारा प्रकाशित किये गये अर्थके विशेषका अर्थात् किसी एक धर्मका कथन करता है वह नय है ।।८३॥" यह वाक्यनयका लक्षण तत्त्वार्थभाष्य अर्थात् तत्त्वार्थराजवार्तिकका है। आगे इसका अर्थ कहते हैं-प्रकर्षसे अर्थात् संशयादिकसे रहित होकर जानना प्रमाण है । अर्थात् जो ज्ञान सकलादेशी होता है वह प्रमाण है यह इसका तात्पर्य है। उस प्रमाणके द्वारा प्रकाशित अर्थात् प्रमाणके द्वारा ग्रहण किये गये अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व और अनित्यत्व आदि अनन्तधर्मात्मक जीवादि पदार्थोंके जो विशेष अर्थात् पर्यायें हैं उनका प्रकर्षसे अर्थात् दोषोंके संबन्धसे रहित होकर जो प्ररूपण करता है वह नय है।
१७५. "जो प्रमाणके आधीन है और ज्ञाताके अभिप्रायके द्वारा विषय किये गये अर्थविशेषोंके प्ररूपण करनेमें समर्थ है उस वचनप्रयोगको नय कहते हैं॥४॥” यह वाक्यनयका लक्षण प्रभाचन्द्रकृत है। इसका अर्थ यह है-जो प्रमाणके आश्रय है, तथा प्रमाणके आश्रयसे होनेवाले परिणामोंके विकल्पोंके अर्थात् ज्ञाताके अभिप्रायके विषयभूत अर्थविशेषोंके प्ररूपण करने में समर्थ है उस प्रयोगको अथवा व्यवहारात्मा अर्थात् प्रयोक्ताको नय कहते हैं।
(१)-पेक्षया निरव-आ० । (२) "सारसंग्रहेप्युक्तं पूज्यपादः अनन्तपर्यायात्मकस्य . ."-ध० आ० ५० ५४२। (३) राजवा० २३३ । "तथा पूज्यपादभट्रारकैरप्यभाणि सामान्यनयलक्षणमिदमेव तद्यथा प्रमाण प्रकाशितार्थ . ."-ध० आ० ५० ५४२ । (४) "प्रकर्षेण मानं प्रमाणं सकलादेश . . . ."-राजवा० १॥३३॥ (५)-य परिमाण-आ०। (६) "तथा प्रभाचन्द्रादिभट्रारकैरप्यभाणि प्रमाण व्यपाश्रयपरिणाम . ."-ध आ० ५० ५४२। (७) 'प्रमाणव्यपाश्रयः तत्परिणामविकल्पवशीकृतानामर्थविशेषाणां प्ररूपणे प्रवणः प्रणिधानं प्रणिधिः प्रयोगो व्यवहारात्मा प्रयोक्ता वा स नयः । स एष याथात्म्योपलब्धिनिमित्तत्वात् भावानां श्रेयोपदेशः.."-ध० आ० ५० ५४२ । (८) ". 'व्यवहारात्मा प्रयोक्ता वा स नयः"-ध० आ० ५०५४२॥
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