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गा० १३-१४]
गंथणामणिदेसहेज वत्तीदो । पेजदोसाणं पाहुडं पेजदोसपाहुडं । एसा सण्णा समभिरूढणयणिबंधणा, "नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढः ॥७४॥” इति वचनात् ।
* णयदो णिप्पण्णं कसायपाहुडं।
१६८. को णयो णाम ? 'प्रमाणपरिगृहीतार्थैकदेशे वस्त्वध्यवसायो नयः।' यह कथन अर्थानुसारी कहलाता है। पेजदोषप्राभृत इस नाममें पेज शब्द भिन्न अर्थको कहता है और दोष शब्द भिन्न अर्थको । पेज शब्दका अर्थ राग है और दोष शब्दका अर्थ द्वेष । ये राग और द्वेषरूप अर्थ न तो केवल पेज शब्दके द्वारा कहे जा सकते हैं और न केवल दोष शब्दके द्वारा ही कहे जा सकते हैं। यदि इन दोनों अर्थोंका कथन केवल पेज या केवल दोष शब्दके द्वारा मान लिया जाय तो राग और द्वेषमें पर्याय भेद नहीं बनेगा। चूंकि राग और द्वेषमें पर्यायभेद पाया जाता है इसलिये इनके कथन करनेवाले शब्द भी भिन्न ही होने चाहिये । इसप्रकार पेज और दोष इन दोनों शब्दोंकी स्वतन्त्र सिद्धि हो जाने पर इनके वाच्यभूत विषयके प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रको भी पेजदोषप्राभृत कहना चाहिये । उसे न केवल पेजप्राभृत ही कह सकते हैं और न केवल दोषप्राभृत ही, क्योंकि पर्यायार्थिक नय दोको अभेदरूपसे नहीं ग्रहण करता है। इसप्रकार पेज्जदोषप्राभृत यह नाम अभिव्याहरणनिष्पन्न समझना चाहिये ।
पेज और दोष इन दोनोंका प्रतिपादन करनेवाला प्राभृत पेज्जदोषप्राभृत कहलाता है। यह संज्ञा समभिरूढनयनिमित्तक है, क्योंकि 'नाना अर्थोको छोड़कर एक अर्थको ग्रहण करनेवाला नय समभिरूढ़ नय कहलाता है ॥७४॥' ऐसा वचन है।
विशेषार्थ-एक शब्दके अनेक अर्थ पाये जाते हैं पर उन अनेक अर्थोंको छोड़कर समभिरूढ़नय उस शब्दका एक ही अर्थ मानता है। इसीप्रकार यद्यपि पेजशब्द प्रिय, राग और पूज्य आदि अनेक अर्थों में पाया जाता है और दोषशब्द भी दोष, दुर्गुण, दूष्य आदि अनेक अर्थों में पाया जाता है पर उन अनेक अर्थोंको छोड़कर यहाँ पेज्ज शब्दका अर्थ राग और दोष शब्दका अर्थ द्वेष ही लिया है जो कि समभिरूढ़नयका विषय है। इसलिये पेज्जदोषप्राभृत यह संज्ञा समभिरूढ़नयकी अपेक्षा समझना चाहिये। इसीप्रकार और जितने नाम अभिव्याहरणनिष्पन्न होंगे वे सब समभिरूढनयके विषय होंगे।
* कषायप्राभृत यह नाम नयनिष्पन्न है । ६ १६८. शंका-नय किसे कहते हैं ?
समाधान-प्रमाणके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थके एकदेशमें वस्तुका निश्चय कराने(१) सर्वार्थसि० १।३३। (२)-ध०सं० पृ०७३। "स्याद्वादप्रविभक्तार्थ विशेषव्यञ्जको नयः "-आप्तमी० श्लो० १०६॥ "वस्तुन्यनेकान्तात्मनि अविरोधेन हेत्वर्पणात् साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापणप्रवणप्रयोगो नयः।" -सर्वार्थसि० १॥३३॥ "ज्ञातणामभिसन्धयः खलु नयास्ते द्रव्यपर्यायतः... 'नयो ज्ञातुर्मतं मतः।"-सिद्धिवि०,
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