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गा० १३-१४] णयपरूवणं
२०३ तथानुपलम्भात् ततो नैते सकलादेशा इति; न; उभयनयविषयीकृतविधिप्रतिषेधधर्मव्यतिरिक्तत्रिकालगोचरानन्तधर्मानुपलम्भाव , उपलम्भे वा द्रव्यपर्यायार्थिकनयाभ्यां व्यतिरिक्तस्य तृतीयस्य नयस्यास्तित्वमासजेत्, न चैवम्, निर्विषयस्य तस्यास्तित्वविरोधात् । एष सकलादेशः प्रमाणाधीनः प्रमाणायत्तः प्रमाणव्यपाश्रयः प्रमाणजनित इति यावत् ।
६१७१. को विकलादेशः ? अस्त्येव नास्त्येव अवक्तव्य एव अस्ति नास्त्येव अस्त्यवक्तव्य एव नास्त्यवक्तव्य एव अस्ति नास्त्यवक्तव्य एव घट इति विकलादेशः। कथमेतेषां सप्तानां दुर्नयानां विकलादेशत्वम् ? न; एकधर्मविशिष्टस्यैव वस्तुनः प्रतिपावाक्यके द्वारा तो कही नहीं जा सकती है, क्योंकि एक धर्मके द्वारा अनन्त धर्मात्मक वस्तुका ग्रहण नहीं देखा जाता है। इसलिये उपर्युक्त सातों वाक्य सकलादेश नहीं हो सकते हैं।
समाधान-नहीं, क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयोंके द्वारा विषय किये गये विधि और प्रतिषेधरूप धर्मोको छोड़कर इनसे अतिरिक्त दूसरे त्रिकालवर्ती अनन्त धर्म नहीं पाये जाते हैं। अर्थात् वस्तुमें जितने धर्म हैं वे या तो विधिरूप हैं या प्रतिषेधरूप हैं, विधि और प्रतिषेधसे बहिर्भूत कोई धर्म नहीं हैं। तथा विधिरूप धर्मोंको द्रव्यार्थिक नय विषय करता है और प्रतिषेधरूप धर्मोको पर्यायार्थिक नय विषय करता है। यदि विधि और प्रतिषेधरूप धर्मोंके सिवाय दूसरे धर्मोंका सद्भाव माना जाय तो द्रव्यार्थिक
और पर्यायार्थिक नयोंके अतिरिक्त एक तीसरे नयका अस्तित्व भी मानना पड़ेगा। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि विषयके बिना तीसरे नयका अस्तित्व माननेमें विरोध आता है।
__ यह सकलादेश प्रमाणाधीन है अर्थात् प्रमाणके वशीभूत है, प्रमाणाश्रित है या प्रमाणजनित है ऐसा समझना चाहिये।
8 १७१. शंका-विकलादेश क्या है ?
समाधान-घट है ही, घट नहीं ही है, घट अवक्तव्यरूप ही है, घट है ही और नहीं ही है, घट है ही और अवक्तव्य ही है, घट नहीं ही है और अवक्तव्य ही है, घट है ही, नहीं ही है और अवक्तव्यरूप ही है, इसप्रकार यह विकलादेश है।।
शंका-इन सातों दुर्नयरूप अर्थात् सर्वथा एकान्तरूप वाक्योंको विकलादेशपना कैसे प्राप्त हो सकता है ?
समाधान-ऐसी आशंका ठीक नहीं, क्योंकि ये सातों वाक्य एकधर्मविशिष्ट वस्तुका ही प्रतिपादन करते हैं, इसलिये ये विकलादेशरूप हैं।
(१) “यदा तु क्रमस्तदा विकलादेशः, स एव नय इति व्यपदिश्यते "निरंशस्यापि गुणभेदादंशकल्पना विकलादेशः' 'तत्रापि तथा सप्तभङ्गी..'-राजवा० पू० १८१-१८६ । लघी० स्व०व० पू० २१॥ नयच० ० ५० ३४८1 अकलङ्कन० टि०४० १४९ ।
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