Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 334
________________ १८७ गा० १३-१४] अत्याहियारणिदेसो दुवारेण एगजीवाहारदुवारेण विहत्तिदुवारेण वा तेसिमेगत्तुवलंभादो। ___ * बंधगे त्ति बंधो च ३, संकमो च ४। ६१५४. बंधगे त्ति एसोण कत्तारणिदेसो, किंतु भावणिसो कम्मणिद्देसो वा । कथमेत्थ कयारो सुणिज्जदि ? ण; बंध एव बंधक इति स्वार्थे ककारोपलब्धः। सो च बंधो दुविहो, अकम्मबंधो कम्मबंधो चेदि । तत्थ मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगपच्चएहि अकम्मसरूवेण हिदकम्मईयक्खंधाणं जीवपदेसाणं च जो अण्णोण्णेण समागमोसोअकम्मबंधो णाम । मदिणाणावरणकम्मक्खंधाणं सुदोहि-मणपज्जव-केवलणाणावरणसरूवेण परिणमिय जो जीवपदसेहि समागमो सो कम्मबंधो णाम । तत्थ अकम्मबंधो एत्थ बंधो त्ति गहिदो सो तदियो अत्थाहियारो। तं कथं णव्वदे ? तदंते तिण्णिअंकुवलं समाधान-नहीं, क्योंकि एक कर्मस्कन्धरूप आधारकी अपेक्षा, अथवा एक जीवरूप आधारकी अपेक्षा अथवा विभक्ति सामान्यकी अपेक्षा स्थितिविभक्ति आदिमें एकत्व पाया जाता है। इसलिये 'विहत्तिहिदिअणुभागे च' इस पदमें एकवचनका निर्देश बन जाता है। विशेषार्थ-यद्यपि 'विहत्तिहिदिअणुभागे' इस पदमें स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्ति इन दोका निर्देश किया है इसलिये यहाँ एकवचनका निर्देश न करके द्विवचनका निर्देश करना चाहिये था। फिर भी द्विवचनका निर्देश नहीं करनेका कारण यह है कि इन दोनों विभक्तियोंका आधार एक कर्मस्कन्ध है, या एक जीव है अथवा विभक्तिसामान्यकी अपेक्षा दोनों विभक्तियाँ एक हैं। अतः 'विहत्तिहिदिअणुभागे' इस पदमें एकवचनका निर्देश करनेमें कोई बाधा नहीं आती है । * गाथामें आये हुए बन्धक इस पदसे, बन्ध नामका तीसरा अर्थाधिकार लिया है ३, तथा संक्रम नामका चौथा अर्थाधिकार लिया गया है ४ । ६१५४. बन्धक यह कर्तृनिर्देश नहीं है किन्तु 'बन्धनं बन्धः' इसप्रकार भावनिर्देश है । अथवा 'बध्यते यः सः बन्धः' इसप्रकार कर्मनिर्देश है। __ शंका-यदि यहाँ कर्तृनिर्देश नहीं है तो 'बन्धक' शब्दमें ककार कैसे सुनाई पड़ता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि 'बन्ध एव बन्धकः' इसप्रकार यहाँ पर स्वार्थमें ककारकी उपलब्धि हो जाती है। वह बन्ध दो प्रकारका है-अकर्मबन्ध और कर्मबन्ध । उनमें से अकर्मरूपसे स्थित कार्मणस्कन्धका और जीवप्रदेशोंका मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगरूप कारणोंके द्वारा जो परस्परमें सम्बन्ध होता है वह अकर्मबन्ध है। तथा मतिज्ञानावरणरूप कर्मस्कन्धोंको श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणरूपसे परिणमाकर उनका जो जीवप्रदेशोंके साथ सम्बन्ध होता है वह कर्मबन्ध है। उनमेंसे यहाँ 'बन्ध' शब्दसे अकर्मबन्धका ग्रहण किया है। यह तीसरा अर्थाधिकार है । (१) एसो कत्तार-अ०, आ०, स०। (२) स्वार्थिकका-अ०, आ० । (३)-इयं क्खं-अ०, आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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