Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० १३-१४] अत्याहियारणिदेसो
१७६ यउवसामणा खवणा चेदि बे अत्थाहियारा । तं कथं णव्वदे १ सणमोहक्खवणुवसामणासु पडिबद्धगाहाणं पुध पुध उवलंभादो। 'संजम-देसविरयीहि' त्ति बेहि मि बे अत्थाहियारा । तं कथं णव्वदे ? 'दोसु वि एक्का गाहा' इति वयणादो। 'दसणचरित्तमोहे' इदि जेणेसा विसयसत्तमी तेण पुव्वुत्तपण्णारस वि अत्थाहियारा दंसणचरित्तमोहविसए होति त्ति घेत्तव्वं । एदेण एत्थ कसायपाहुडे सेससत्तण्हं कम्माणं परूवणा णस्थि त्ति भणिदं होदि । सव्व-अत्थाहियारेसु अद्धापरिमाणणिद्देसो कायव्वो, अण्णहा तदवगमुवायाभावादो। अद्धापरिमाणणिद्देसो पुण अत्थाहियारो ण होदि; सव्वत्थाहियारेसु कंठियामुत्ताहलेसु मुत्तं व अवहाणादो। सेसं सुगमं ।
'सम्मत्त' इस पदसे यहां पर दर्शनमोहनीयकी उपशामना और दर्शनमोहनीयकी क्षपणा ये दो अर्थाधिकार लिये गये हैं।
शंका-यह कैसे जाना जाता है कि 'सम्मत्त' इस पदसे दर्शनमोहनीयकी उपशामना और दर्शनमोहनीयकी क्षपणा ये दो अधिकार लिये गये हैं ?
समाधान-चूंकि दर्शनमोहनीयकी उपशामना और दर्शनमोहनीयकी क्षपणासे संबन्ध रखनेवाली गाथाएँ पृथक् पृथक् पाई जाती हैं, इससे जाना जाता है कि दर्शनमोहनीयकी उपशामना और दर्शनमोहनीयकी क्षपणा ये दोनों स्वतंत्र अर्थाधिकार हैं।
'देसविरई' और 'संजम' इन दोनों पदोंसे भी दो अर्थाधिकार लेना चाहिये। शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-'दोसु वि एका गाहा' अर्थात् देशविरति और संयम इन दोनों अर्थाधिकारोंमें एक गाथा पाई जाती है, इस वचनसे जाना जाता है कि देशविरति और संयम ये दोनों स्वतंत्ररूपसे दो अर्थाधिकार हैं।
'दसण-चरित्तमोहे' इस पदमें जिसलिये विषयमें सप्तमी विभक्ति है, इसलिये पूर्वोक्त पन्द्रहों अर्थाधिकार दर्शनमोह और चारित्रमोहके विषयमें होते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। इस कथनसे इस कषायप्राभृतमें शेष सात कर्मोंकी प्ररूपणा नहीं है, यह अभिप्राय निकलता है। उक्त सभी अधिकारोंमें अद्धापरिमाणका निर्देश कर लेना चाहिये, अन्यथा स्वतंत्ररूपसे उसके ज्ञान करनेका कोई दूसरा उपाय नहीं पाया जाता है। किन्तु अद्धापरिमाणनिर्देश स्वतंत्र अधिकार नहीं है, क्योंकि कंठीके सभी मुक्ताफलोंमें जिसप्रकार सूत्र (डोरा) पाया जाता है उसीप्रकार समस्त अर्थाधिकारोंमें अद्धापरिमाणका निर्देश पाया जाता है। शेष कथन सुगम है।
विशेषार्थ-यद्यपि गुणधर भट्टारकने पन्द्रह अर्थाधिकारोंके नामोंका निर्देश करनेवाली उपर्युक्त दो गाथाओंके अन्तमें 'अद्धापरिमाणणिहेसो' यह कहकर अद्धापरिमाणनिर्देशका
(१) गाथांकः ६ ।
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