Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा०३]
श्रस्थाहियारणिदेसो विणा हिदि-अणुभागाणमणुववत्तीदो । झीणाझीण-हिदिअंतियाणि तेसु चेव पविहाणि; तेहि विणा तदणु[व]वत्तीदो।
१२२. अहवा, पेज्जदोसविहत्तीए पयडिविहत्ती पविहा, दव्वभावपेज्ज-दोसवदिरित्तपयडीए अभावादो। पदेसविहत्ति-झीणाझीण-हिदिअंतियाणि पेज्जदोस-द्विदिअणुभागविहत्तीसु पविटाणि तेसिं तदविणाभावादो।
६१२३. अथवा, 'अणुभागे च' इदि 'च' सहेण सूचिदपदेसविहत्ति-हिदिअंतियझीणझीणाणि घेत्तण चउत्थो अत्थाहियारो। 'बंधगे' त्ति बंध-संकमे बेवि घेत्तण पंचमो अत्थाहियारो। एवमेदेसु पंचसु अत्थाहियारेसु ५ पुग्विल्लतिण्णि गाहाओ णिबद्धाओ। झीणाझीण प्रदेश और स्थित्यन्तिक प्रदेश भी स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्तिमें ही अन्तर्भूत हो जाते हैं, क्योंकि इनके बिना झीणाझीण और स्थित्यन्तिक नहीं बन सकते हैं।
६१२२. अथवा, पेज्ज-दोषविभक्तिमें प्रकृतिविभक्ति अन्तर्भूत हो जाती है, क्योंकि द्रव्यरूप पेज-दोष और भावरूप पेज-दोषको छोड़ कर प्रकृति स्वतंत्ररूपसे नहीं पाई जाती है। तथा प्रदेशविभक्ति, झीणाझीणप्रदेश और स्थित्यन्तिकप्रदेश ये तीनों पेज-दोषविभक्ति, स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्तिमें अन्तर्भूत हो जाते हैं, क्योंकि प्रदेशविभक्ति आदिका पेज-दोषविभक्ति आदिके साथ अविनाभावसंबन्ध पाया जाता है।
१२३. अथवा 'अणुभागे च' इस गाथाभागमें आये हुए 'च' शब्दसे सूचित प्रदेश, विभक्ति, स्थित्यन्तिकप्रदेश और झीणाझीणप्रदेशको लेकर चौथा अर्थाधिकार होता है। तथा
'बंधगे' इस पदसे बन्ध और संक्रम इन दोनोंको ग्रहण करके पाँचवाँ अर्थाधिकार होता है। . इसप्रकार इन पाँच अर्थाधिकारों में पहले मूलमें कही गईं 'पेजं वा दोसं वा' इत्यादि तीन गाथाएं निबद्ध हैं।
विशेषार्थ-अधिकारसूचक पेजदोसविहत्ती' इत्यादि गाथामें पेज्जदोष, स्थिति, अनुभाग और बन्धक ये चार नाम ही गिनाये हैं। तथा बन्धक इस पदकी पुनः आवृत्ति करके संक्रमका ग्रहण किया है। यहाँ बन्धक इस पदमें 'क' प्रत्यय स्वार्थमें है जिससे बन्धक पदसे बन्ध करनेवालेका ग्रहण न होकर बन्धका ही ग्रहण होता है । इसप्रकार गुणधर आचार्यके अभिप्रायानुसार इस कषायपाहुडके पेजदोषविभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, बन्ध और संक्रम ये पाँच अधिकार पूर्वोक्त गाथाके आधारसे सिद्ध हो जाते हैं।
और छठा अर्थाधिकार वेदक है। पर गुणधर आचार्यने इस कषायपाहुडमें पेजदोषविभक्तिके अनन्तर प्रकृतिविभक्तिका तथा अनुभागविभक्तिके अनन्तर प्रदेशविभक्ति, झीणाझीण और स्थित्यन्तिक अर्थाधिकारोंका वर्णन किया है जैसा कि 'पयडी ए मोहणिज्जा' इत्यादि गाथासे भी प्रकट होता है। अतः इन चारों अर्थाधिकारोंका उपर्युक्त पाँच अर्थाधिकारोंमेंसे किन अधिकारों में अन्तर्भाव करना उचित होगा यह प्रश्न शेष रह जाता है।
(१)-ट्ठिदिभागा-अ०, आ० ।
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