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जयधवलास हिदे कसा पाहुडे
[ १ पेज्जदोसविहत्ती
गुणहर भडारयस्स अभावादो; ण; णिद्दोसप्पक्खरसहेउपमाणेहि सुत्तेण सरिसत्तमत्थि ति गुणहराइरियगाहाणं पि सुत्तत्तुंवलंभादो | अत्रोपयोगी श्लोकः
“अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद्द्भूढनिर्णयम् ।
निर्दोषं हेतुमत्तथ्यं सूत्रमित्युच्यते बुधैः ॥ ६८ ॥"
s १२०. एदं सव्वं पि सुत्तलक्खणं जिणवयणकमलविणिग्गयअत्थपदाणं चेव संभव ण गणहरमुहविणिग्गयगंथरयणाए, तत्थ महापरिमाणत्तुवलं भादो; ण; सच्च (सुत्तै-) सारिच्छमस्सिदूण तत्थ वि सुत्तत्तं पडि विरोहाभावादो ।
समाधान- नहीं, क्योंकि निर्दोषत्व, अल्पाक्षरत्व और सहेतुकत्वरूप प्रमाणोंके द्वारा गुणधर भट्टारककी गाथाओंकी सूत्रके साथ समानता है, अर्थात् गुणधर भट्टारककी गाथाएँ निर्दोष हैं, अल्प अक्षरवाली हैं, सहेतुक हैं, अतः वे सूत्रके समान हैं । इसलिये गुणधर आचार्यकी गाथाओं में भी सूत्रत्व पाया जाता है । इस विषयका उपयोगी श्लोक देते हैं" जिसमें अल्प अक्षर हों, जो असंदिग्ध हो, जिसमें सार अर्थात् निचोड़ भर दिया हो, जिसका निर्णय गूढ़ हो, जो निर्दोष हो, सयुक्तिक हो, और तथ्यभूत हो उसे विद्वान् जन सूत्र कहते हैं ॥६८॥"
$ १२०. शंका- यह सम्पूर्ण सूत्रलक्षण तो जिनदेवके मुखकमलसे निकले हुए अर्थपदोंमें ही संभव है, गणधरके मुखसे निकली हुई ग्रंथरचनामें नहीं, क्योंकि उनमें महापरिमाण पाया जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि गणधरके वचन भी सूत्र के समान होते हैं इसलिये उनकी ग्रन्थरचना में भी सूत्रत्वके प्रति कोई विरोध नहीं आता है । अर्थात् सूत्रके समान होनेके कारण गणधरकी द्वादशांगरूप ग्रन्थरचना भी सूत्र कही जा सकती है ।
विशेषार्थ - कृति अनुयोगद्वार में वीरसेन स्वामीने 'अल्पाक्षरमसंदिग्धं' इत्यादि रूपसे सूत्रका लक्षण कह कर तदनुसार तीर्थंकर के मुखसे निकले हुए बीजपदोंको सूत्र कहा है । और सूत्र के द्वारा गणधरदेव में उत्पन्न होनेवाले ज्ञानको सूत्रसम कहा है । तथा बन्धन
( १ ) " अप्परगंथ महत्थं बत्तीसादोसविरहियं जं च । लक्खणजुत्तं सुत्तं अट्ठहि य गुणेहि उववेयं ॥ निद्दोसं सारवंतं च हेउजुत्तमलंकियं । उवणीयं सोवयारं व मियं महुरमेव वा ॥" -आ० नि० गा० ८८०, ८८५ । अनु० सू० गा० सू० १२७॥ कल्पभा० गा० २७७, २८२ । व्यव० भा०गा० १९०। (२) तुलना - "स्वल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारद्विश्वतोमुखम् । अस्तोभमनवद्यञ्च सूत्रं सूत्रविदो विदुः || ” - पाराशरोप० अ० १८ । मध्वभा० १|११| मुग्धबो० टी० । न्यायवा० ता० १|१|२| प्रमाणमी० पृ० ३५ | "अप्पक्खरमसंदिद्धं सारवं विस्तोमुहं । अत्योभमणवज्जं च सुत्तं सव्वन्नुभासियं ॥” - आव० नि० गा० ८८६। कल्पभा० गा २८५ । " तथा ह्याहु: - लघूनि सूचितार्थानि स्वल्पाक्षरपदानि च । सर्वतः सारभूतानि सूत्राण्यहुर्मनीषिणः || ” - न्यायवा० गा० १।१।२ । ( ३ ) तुलना - "अल्पाक्षरम संदिग्धं सारवद्गूढनिर्णयं । निर्दोषं हेतुमत्तथ्यं सूत्रमित्युच्यते बुधैः । इदि वयणादो तित्थयरवयण विणिग्गयबीजपदं सुत्तं । तेण सुत्तेण समं वट्टदि उप्पज्जदित्ति गणहरदेवम्मि द्विदसुदणाणं सुत्तसमं ।" - कृति अ०, घ० आ० प० ५५६ ।
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