Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [१ पेज्जदोसविहत्ती याणं वण्णणं कुणइ । अंग्गेणियं णाम पुव्वं सत्तंसय-सुणय-दुण्णयाणं छदव्व-णवपयत्थपंचत्थियाणं च वण्णणं कुणइ। विरियौणुपवादपुव्वं अप्पविरिय-परविरिय-तदुभयविरियखेत्तविरिय-कालविरिय-भवविरिय-तवविरियादीणं वण्णणं कुणइ । अस्थिणत्थिपवादो सव्वदव्याणं सरूवादिचउक्केण अत्थित्तं पररूवादिचउक्केण णत्थित्तं च परूवेदि । विहिपडिसेहधम्मे णयगहणलीणे जाणादुण्णयाणिराकरणदुवारेण परूवेदि त्ति भणिदं होदि । दृष्टिसे क्रमसे होनेवाले और द्रव्यदृष्टि से अक्रमसे होनेवाले उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यका वर्णन करता है। अग्रायणी नामका पूर्व सातसौ सुनय और दुर्नयोंका तथा छह द्रव्य, नौ पदार्थ और पांच अस्तिकायोंका वर्णन करता है। वीर्यानुप्रवाद नामका पूर्व आत्मवीर्य, परवीर्य, उभयवीर्य, क्षेत्रवीर्य, कालवीर्य, भववीर्य और तपवीर्य आदिका वर्णन करता है, अर्थात् इसमें प्रत्येक वस्तुकी सामर्थ्यका वर्णन रहता है। अस्तिनास्तिप्रवाद नामका पूर्व स्वरूप आदि चतुष्टयकी अपेक्षा समस्त द्रव्योंके अस्तित्वका और परद्रव्य आदि चतुष्टयकी अपेक्षा उनके नास्तित्वका प्ररूपण करता है । तात्पर्य यह है कि यह पूर्व नाना दुर्नयोंका निराकरण करके नयोंके द्वारा ग्रहण करने योग्य विधि और प्रतिषेधरूप धर्मोंका वर्णन करता है। ज्ञानप्रवाद ध० आ० ५० ५४८ । ध० सं० १० ११५ । हरि० १०७५ । गो० जीव० जी० गा० ३६५। अंगप० (पूर्व०) गा० ३८॥ “तत्थ सव्वदव्वाण पज्जवाण य उप्पायभावमंगीकाउ पण्णवणा कया।"-नन्दी० चू०, हरि०, मलय० सू० ५६। सम० अभ० स० १४७ ।
(१) "क्रियावादादीनां प्रक्रिया अग्रायणी चांगादीनां स्वसमवायविषयश्च यत्र ख्यापितस्तदग्रायणम् ।" -राजवा० ११२० । ध० आ० ५० ५४८। ध० सं० १० ११५। हरि० १०७६ । “अग्रस्य द्वादशांगेंषु प्रधानभूतस्य वस्तुनः अयनं ज्ञानमग्रायणं तत्प्रयोजनमग्रायणीयम्'-गो० जीव० जी० गा० ३६५ । “अग्गस्स वत्थुणो पि हि पहाणभूदस्स णाणमगणंतं । सुअग्गायणीयपुवं अग्गायणसंभवं विदियं ॥ सत्तसयसुणयदुण्णयपंचत्थिसुकायछक्कदव्वाणं । तच्चाणं सत्तण्हं वण्णेदि तं अत्थणियराणं ॥" भेए लक्खणानि य.."-अंगप० (पूर्व) गा०४०-४२१ "बितियं अग्गेणीयं, तत्थ वि सव्वदव्वाण पज्जवाण य सव्वजीवाजीवविसेसाण य अग्गं परिमाणं वन्निज्जति त्ति अग्गेणीयं ।"-नन्दी० चू०, हरि०, सू० ५६। सम० अभ० स० १४७। “अग्रं परिमाणं तस्यायनं गमनं परिच्छेदनमित्यर्थः। तस्मै हितमग्रायणीयं सर्वद्रव्यादिपरिमाणपरिच्छेदकारीति भावार्थः।" । -नन्दी० मलय० सू० ५६। (२) "इक्किक्को य सयविहो सत्तनयसया हवंति एमेव २२६४॥ (३) "छदमस्थकेवलिनां वीर्य सुरेन्द्रदैत्याधिपानां ऋद्धयो नरेन्द्रचक्रधरबलदेवानाञ्च वीर्यलाभो द्रव्याणं सम्यकलक्षणं च यत्राभिहितं तद्वीर्यप्रवादम्।"-राजवा० श२० । ध० आ०प०५४८। ध० सं० १० ११५। हरि० १०८८ गो० जीव० जी० गा० ३६६। “ तं वण्णदि अप्पबलं परविज्ज उहयविज्जमवि णिच्चं । खेत्तबलं कालबलं भावबलं तववलं पुण्णं ॥ दवबलं गुणपज्जयविज्जविज्जाबलं च सव्वबलं।"अंगप० (पूर्व) गा० ५०-५१॥ "तत्थवि अजीवाण जीवाण य सकम्मेतराण वीरियं प्रव प्पवादं ।"-नन्दी० चू०, हरि०, मलय० सू० ५६ । सम० अभ० सू० १४७। (४) “पञ्चानामस्तिकायानामर्थों नयानाञ्चानेकपर्यायरिदमस्ति इदं नास्तीति च कात्स्न्येन यत्रावभासितं तदस्तिनास्तिप्रवादम् । अथवा षण्णामपि द्रव्याणां भावाभावपर्यायविधिना स्वपरपर्यायाभ्यामुभयनयवशीकृताभ्यामपितानपितसिद्धाभ्यां यत्र निरूपणं तदस्तिनास्तिप्रवादम् ।"-राजवा० १।२०। ध० आ० ५० ५४८। ध० सं० १०११५॥ हरि०१०८९। गो० जीव० जी० गा० ३३६। अंगप० (पूर्व०) गा० ५२-५७ । “जं लोगे जधा अत्थि पत्थि
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