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गा०१]
पञ्चक्खाणपवादादिसरूवपरूवणं $१०६. पञ्चक्खाणपवादो णाम-हवणा-दव्व-खेत्त-काल-भावभेदभिण्णं परिमियकर्म । किसीका 'कर्म' ऐसा नाम रखना नामकर्म कहलाता है। चित्रकर्म आदिमें तदाकाररूपसे और अक्ष आदिमें अतदाकार रूपसे कर्मकी स्थापना करना स्थापनाकर्म कहलाता है। जिस द्रव्यकी जो सद्भावक्रिया है वह सब द्रव्यकर्म कहलाता है। ज्ञानादिरूपसे परिणमन करना जीवकी सद्भावक्रिया है । रूप, रस आदिरूपसे परिणमन करना पुद्गलकी सद्भाव क्रिया है। इसीप्रकार अन्य द्रव्योंकी सद्भाव क्रिया भी समझना चाहिये । मन, वचन और कायके भेदसे प्रयोगकर्म तीन प्रकारका है। इसप्रकार प्रयोगकर्ममें योगका ग्रहण किया गया है। मिथ्यात्वादि कारणोंके निमित्तसे आयुकर्मके साथ आठ प्रकारके, आयु कर्म के विना सात प्रकारके
और दसवें गुणस्थानमें आयु और मोहनीयके विना छइ प्रकारके कर्मोंका ग्रहण करना समवदानकर्म कहलाता है । ओदावण, विद्दावण, परिदावण और आरंभके करनेसे जो कर्म उत्पन्न होता है उसे अधःकर्म कहते हैं। जीवके ऊपर उपद्रव करना ओदावण कहलाता है। अगोंका छेदना आदि व्यापार विदावण कहलाता है। संतापका पैदा करना परिदावण कहलाता है। और प्राणोंका वियुक्त करना आरंभ कहा जाता है। एक जीव दूसरे शरीरमें स्थित जीवके साथ जब ओदावण आदि क्रियारूप व्यापार करता है तब वह अधःकर्म कहा जाता है। ईर्याका अर्थ योग है और पथका अर्थ हेतु है। जिसका यह अर्थ हुआ कि केवल योगके निमित्तसे जो कर्म होता है वह ईर्यापथकर्म कहलाता है। यह कर्म छद्मस्थ वीतराग और सयोगकेवलीके होता है । छह आभ्यन्तर और छह बाह्य तपोंके भेदसे तपःकर्म बारह प्रकारका है। जिनदेव आदिकी वन्दना करते समय जो कृतिकर्म किया जाता है उसे क्रियाकर्म कहते हैं। जो जीव कर्मविषयक शास्त्रको जानता है और उसमें उपयुक्त है वह भावकर्म कहलाता है । इसप्रकार कर्मप्रवादमें कर्मोंका वर्णन है।
६१०६. प्रत्याख्यानप्रवाद नामका पूर्व नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे अनेक प्रकारके परिमितकाल और अपरिमितकालरूप प्रत्याख्यानका वर्णन करता है।
विशेषार्थ-मोक्षके इच्छुक व्रतीद्वारा रत्नत्रयके विरोधी नामादिकका मन, वचन और कायपूर्वक त्याग किया जाना प्रत्याख्यान कहलाता है। यह प्रत्याख्यान नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे छह प्रकारका है। जो नाम पापके कारणभूत हैं
और रत्नत्रयके बिरोधी हैं उन्हें स्वयं नहीं रखना चाहिये और न दूसरेसे रखवाना चाहिये। तथा कोई रखता हो तो सम्मति नहीं देनी चाहिये । यह सब नामप्रत्याख्यान है। अथवा
(१) "व्रतनियमप्रतिक्रमणप्रतिलेखनतपःकल्पोपसर्गाचारप्रतिमाविराधनाराधनविशुद्धयुपक्रमा: श्रामण्यकारणं च परिमितापरिमितद्रव्यभावप्रत्याख्यानञ्च यत्राख्यातं तत्प्रत्याख्याननामधेयम ।"-राजवा० श२०। ध० आ० ५० ५५०। ध० सं० पृ० १२१॥ हरि० १०॥११॥ गो० जीव० जी०गा० ३६६ । अंगप० (पूर्व) गा० ९१-१००। "तमि सव्वपच्चक्खाणसरूवं वणिज्जइ त्ति अतो पच्चक्खाणप्पवादं"-नन्दी० च०. हरि०, मलय० स० ५६॥ सम० अभ० सू० १४७॥
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