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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? अणुमेत्तो णिच्चेयणो सपयासओ परप्पयासओणत्थि जीवो त्ति य णत्थिपवादं, किरियावादं अकिरियावादं अण्णाणवादं णाणवादं वेणइयवादं अणेयपयारं गणिदं च वण्णेदि ।
“असीदि-सदं किरियाणं, अकिरियाणं च आहु चुलसीदि ।
सत्तट्टण्णाणीणं वेणइयाणं च बत्तीसं ॥६६॥" एदीए गाहाए भणिदतिण्णिसय-तिसट्ठिसमयाणं वण्णणं कुणदि त्ति भणिदं होदि । अकर्ता ही है, निर्गुण ही है, अभोक्ता ही है, सर्वगत ही है, अणुमात्र ही है, निश्चेतन ही है, स्वप्रकाशक ही है, परप्रकाशक ही है, नास्तिस्वरूप ही है इत्यादिरूपसे नास्तिवाद, क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद, ज्ञानवाद और वैनयिकवादका तथा अनेक प्रकारके गणितका वर्णन करता है।
__"क्रियावादियोंके एकसौ अस्सी, अक्रियावादियोंके चौरासी, अज्ञानियोंके सरसठ और वैनयिकोंके बत्तीस भेद कहे हैं ॥६६॥"
इस गाथामें कहे गये तीनसौ त्रेसठ समयोंका वर्णन सूत्र नामका अधिकार करता है, यह उपर्युक्त कथनका तात्पर्य समझना चाहिये ।
विशेषार्थ-क्रिया कर्तीके बिना नहीं हो सकती है और वह आत्माके साथ समवेत है ऐसा क्रियावादी मानते हैं। वे क्रियाको ही प्रधान मानते हैं ज्ञानादिकको नहीं । तथा वे जीवादि पदार्थोंके अस्तित्वको ही स्वीकार करते हैं । अस्तित्व एक; स्वतः परतः, नित्यत्व और अनित्यत्व ये चार; जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नौ पदार्थ तथा काल, ईश्चर, आत्मा, नियति और स्वभाव ये पांच इसप्रकार इन सबके परस्पर गुणा करने पर 'स्वतः जीव कालकी अपेक्षा है ही, परत: जीव कालकी अपेक्षा है ही' इत्यादिरूपसे क्रियावादियोंके एकसौ अस्सी भेद हो जाते हैं । इन सब भेदोंका द्योतक कोष्ठक निम्नप्रकार हैचतुर्थे समया परे । सूत्रिता ह्यधिकारे ते नानाभेदव्यवस्थिताः ॥"-हरि० १०॥६९-७० ।
(१) णिरिया-अ०, आ०। (२) "असियसयं किरियवाई अक्किरियाणं च होइ चुलसीदी। सत्तट्ठी अण्णाणि वेणैया होति बत्तीसा ॥"-भावप्रा० गा० १३५ । गो० कर्म० गा० ८७६ । “चउविहा समोसरणा पण्णत्ता-तं जहा-किरियावादी अकिरियावादी अण्णाणिवादी वेणइयवादी ।"-भग० ३०११। स्था०४॥४॥ ३४५ । नन्दी० सू० ४६ । सम० सू० १३७ । “असियसयं किरियाणं अक्किरियाणं होइ चुलसीती। अन्नाणि य सत्तट्ठी वेणइयाणं च बत्तीसा ॥"-सूत्र० नि० गा० ११९ । उद्धृतेयम्-सर्वार्थ० ८।१। आचा० शी० ॥ २११३ । षड्द० बृह० । (३) “जीवादिपदार्थसद्भावोऽस्तीत्येवं सावधारणक्रियाभ्युपगमो येषां ते अस्तीति क्रियावादिनः ॥"-सूत्र० शी० २१२। स्था० अभ० ४।४।३४५ । "क्रिया का विना न संभवति. सा चात्मसमवायिनीति वदन्ति तच्छीलाश्च येते क्रियावादिनः । अन्ये त्वाहुः-क्रियावादिनो ये ब्रुवते क्रिया प्रधानं किं ज्ञानेन ? अन्ये तु व्याख्यान्ति-क्रियां जीवादिः पदार्थोऽस्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः।"-भग० अभ० ३०११। नन्दी० चू० हरि०, मलय० सू०४६ । “पदार्था नव जीवाद्या स्वपरौ नित्यतापरौ॥ पंचभिनियतिपृष्टश्चतुर्भिः स्वपरादिभिः । एकैकस्यात्र जीवादे-गेऽशीत्युत्तरं शतम् ॥"-हरि० १०॥ ४८-५० । “अस्थि सदो परदो वि य णिच्चाणिच्चत्तणेण य णवत्था । कालीसरप्पणियदिसहावेहि य ते
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