Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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प्रस्तावना
शककालके बादके गुप्त वंशके समयमें २३१ की जगह २५५ वर्ष रखकर पूर्ण किये। क्योंकि त्रिलोकप्रशप्तिमें लिखा है- "णिव्वाणगदे वीरे चउसदइगिसदठिवासविच्छेदे ।।
जावो च सगरिदो रज्जं वस्सस्स दुसयवादाला ॥ वोणिसया पणवण्णा गुत्ताणं चउमुहस्स वादालं।
वस्सं होवि सहस्सं केई एवं परूवंति ॥" अर्थात्-'वीरनिर्वाणके ४६१ वर्ष वीतनेपर शकराजा हुआ। उसके वंशजोंका राज्यकाल २४२ वर्ष तक रहा । उसके बाद गुप्तवंशीय राजाओंने २५५ वर्ष तक राज्य किया। फिर चतुर्मुख कल्कि ने ४२ वर्ष राज्य किया। कोई कोई इस तरह एक हजार वर्ष बतलाते है। अतः ४६१ वर्षकी मान्यताके आधारपर मौर्यराज्यके समय में १२० वर्षकी कमी की गई जान पड़ती है, जो इतिहासके अनुकूल नहीं है।
मौर्यो के बाद पुष्यमित्र तथा वसुमित्र अग्निमित्र या वलमित्र भानुमित्रकी राज्यकाल गणनामें कोई अन्तर नहीं है।
वसुमित्र अग्निमित्रके बाद त्रिलोक प्रज्ञप्तिके कर्ता गंधर्वसेन और नरवाहनका उल्लेख करते हैं। जब कि श्वेताम्बराचार्य नभःसेन या नरवाहनके बाद गर्दभिल्लका राज्य बतलाते हैं। त्रिलोक प्रज्ञप्तिकी किसी किसी प्रतिमें गहव्वया' पाठ भी पाया जाता है। जिसका अर्थ गर्दभिल्ल किया जा सकता है। हरिवंश पुराणकारने सम्भवतः इसी पाठके आधारपर गर्दभका पर्याय शब्द रासभ प्रयुक्त किया है। गन्धर्वसेन राजा गर्दभी विद्या जानने के कारण गर्दभिल्ल नामसे ख्यात हुआ । हिन्दू धर्मके भविष्य पुराणमें भी विक्रम राजाके पिताका नाम गंधर्वसेन ही लिखा है। गर्दभिल्लोंके बाद ही नरवाहन या नहपानका राज्य होना इतिहाससे सिद्ध है। क्योंकि तित्थोगाली पइन्नयकी गणनाके अनुसार मौर्योंके १६० वर्ष मानकर यदि गर्दभिल्लोंसे प्रथम नरवाहनका राज्य मान लिया जाय तो गर्दभिल्ल पुत्र विक्रमादित्यका काल वीरनिर्वाणसे ५१० वर्ष बाद पड़ेगा। अतः इस विषयमें त्रिलोक प्रज्ञप्तिका क्रम ठीक प्रतीत होता है।
___ गर्दभिल्लोंके बाद शकराज नरवाहन या नहपानका राज्य ४० वर्ष तक बतलाया है। अन्त समय भत्यवंशके गौतमीपुत्र सातकर्णी (शालिवाहन) ने उसे जीतकर शकोंको जीतनके उपलक्षमें वीर निर्वाण से ६०५ वर्षं ५ मास बाद शालिवाहन शकाब्द प्रचलित किया । त्रिलोक प्रज्ञप्तिमें नरवाहनके बाद आन्ध्रभत्य राजाओंका राज्यकाल बतलाया है जो उक्त ऐतिहासिक मान्यताके अनकल है।
त्रिलोक प्रज्ञप्तिके कर्ताने वीर निर्वाणसे कितने समय पश्चात् शकराजा हुआ इस बारेमें कई मतोंका उल्लेख किया है। उनमें से एक मतके अनुसार ६०५ वर्ष ५ मास भी काल बतलाया है। हरिवंश पुराण तथा त्रिलोकसारके रचयिताओंने इसी मतको स्थान दिया है और इसीके अनुसार वर्तमानमे शक सम्वत् प्रचलित है । किन्तु म्हैसूरके प्रास्थान विद्वान श्री पं० ए० शान्तिराजैय्या इसे विक्रम सम्वत्के प्रारम्भका काल समझते है । अर्थात् आपका कहना है कि प्रचलित विक्रम सम्वत्से ६०५ वर्ष ५ माह पूर्व महावीरका निर्वाण हुआ है और त्रिलोकसारमें जो उल्लेख है वह भी विक्रम राजाके बारेमें ही है क्योंकि उसकी संस्कृत टीकामें शकका अर्थ विक्रमांक शक किया है। किन्तु ऐसा माननेसे तमाम कालगणना अस्त व्यस्त हो जाती है। बौद्ध ग्रन्थोंमें जो बुद्धके समकालमें महावीर भगवानके जीवनका उल्लेख पाया जाता है वह भी नहीं बनेगा। राजा श्रेणिक और भगवानकी समकालता भी भङ्ग हो जायेगी। अत: उक्त दि० जैन ग्रन्थोंमें जो शकका उल्लेख है वह शालिवाहन शकका ही उल्लेख है। शालिवाहन शकका भी उल्लेख विक्रमांक पदके साथ जैन परम्परामें पाया जाता है। जैसे, धवलामे उसका रचना काल बतलाते हुए लिखा है-'अद्वतीसम्हि सत्तसए विक्कमरायंकिए सुसगणामे ।'
यदि इसे भी ७३८ विक्रम सम्वत् मान लेते हैं तो प्रशस्तिमे दी हुई काल गणना और राजाओंका उल्लेख गड़बड़में पड़ जाता है। अतः यही मत ठीक है कि वीरनिर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ माह बाद शालिवाहन शक प्रचलित हुना, न कि विक्रम सं०।
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