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जयधवलासहित कषायप्राभृत
ज्ञानावरणसे आवृत अवस्थामें भी प्रकट होनेवाले ज्ञानदेशका घात करते हैं इसीलिए इनकी देशघाती संज्ञा है और ज्ञान के प्रचुर अंशोंको घातने के कारण केवलज्ञानावरण सर्वघाती कहलाता है ।
इस तरह जीवके ज्ञानसामान्य गुणपर प्रथम ही केवलज्ञानावरण पड़ा हुआ है और उससे निकलने वाली मन्दज्ञानकिरणोंपर मतिज्ञानावरणादि चार आवरण कार्य करते हैं । संसारी जीवोंके मतिज्ञान आदिके विषयभूत पदार्थोंका जो अज्ञान रहता है उसमें मतिज्ञानावरपादिका उदय हेतु है तथा मतिज्ञानादिके अविषय शेष अनन्त अतीन्द्रिय पदार्थोंके अज्ञानमें केवलज्ञानावरणका उदय निमित्त होता है । अत: जैन परम्परा में ज्ञान आत्माका गुण है और आवरण कर्मके कारण उसके पांच भेद हो जाते हैं । इसी अभिप्रायसे वोरसेन स्वामीने (जयध० पृ० ४४, धव० प० ८६६) में मतिज्ञानादिको केवलज्ञानका अवयव लिखा है । इसका इतना ही अभिप्राय है कि परिपूर्णज्ञान केवलज्ञान है और मतिज्ञानादि उसी ज्ञानकी मन्दकिरणें होने से श्रवयवरूप हैं ।
श्रुतज्ञानका सामान्य लक्षण यद्यपि शब्दजनित अर्थज्ञान या अर्थसे अर्थान्तरका ज्ञान है फिर भी श्रुत शब्द द्वादशांग आगमोंमें रूढ़ है । भ० महावीर के उपदेष्टा हैं और गणधरदेव उन्हीं अर्थोंको द्वादशांग रूपसे गूंथते हैं । इनमें बारहवें दृष्टिवाद अंगके श्रुतज्ञान उत्पाद पूर्व आदि १४ पूर्वं होते हैं । दिगम्बर परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर के निर्वाणके ६८३ वर्ष तक अंग और पूर्वोकी परम्परा कालक्रमसे चली आई और अन्ततः अंग और पूर्वोके एकदेशधारी ही आचार्य रहे, समग्र अंग पूर्वके पाठियोंका अभाव कालक्रमसे हो गया ।
श्वेताम्बरपरम्परामें आर्य वज्रस्वामी अन्तिम दशपूर्वके धारी थे । उसके बाद पूर्वज्ञान लुप्त हो गया पर अंग ज्ञान चालू रहा। जिस प्रकार बुद्धके निर्वाणके ६ माह बाद ही मुख्य मुख्य भिक्षु स्थविरोंकी प्रथम संगीति हुई और इसमें सर्वप्रथम त्रिपिटकों का संगायन हुआ और त्रिपिटकका यथासंभव व्यवस्थित संकलन किया गया । इसके सिवाय बादमें भी और दो संगीतियाँ हुई जिनमें त्रिपिटिकके पाठोंकी व्यवस्था हुई उसी तरह श्वेताम्बर परम्परा के उल्लेखानुसार सर्वप्रथम वीरनिर्वाण से दूसरी शताब्दी में श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय पाटलिपुत्र परिषद् हुई। इसमें भद्रबाहुके सिवाय प्रायः सभी स्थविर एकत्र हुए । इन्होंने कण्ठपरम्परासे आए हुए ग्यारह अंगों की वाचना करके उन्हें व्यवस्थित किया । इस समय बारहवाँ अंग दृष्टिवाद करीब करीब विच्छिन्न हो गया था । मात्र भद्रबाहु श्रुतकेवली ही इस समय चतुर्दशपूर्वंधर थे । इनके पास स्थूलभद्र पूर्वज्ञान लेने गए । भद्रबाहुने दश पूर्व साथ तथा चार पूर्व मूलमात्र स्थूलभद्रको सिखाए । स्थूलभद्र वीरसंवत् २१६ में स्वर्गस्थ हुए थे । ये अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर थे । इस तरह वीरनिर्वाणकी दूसरी सदीसे ही श्रुत छिन्न भिन्न होने लगा था। खासकर दृष्टिवाद अंग तो अत्यन्त गहन होने के कारण छिन्नप्राय हो चुका था । इसके बाद वीरनिवांणकी आठवीं सदी में आर्यस्कन्दिल आदि स्थविरोंने माथुरी वाचना की ।
इसके बाद वीरनिर्वाणसे दशवीं सदी (वीर सं० ६८०) में देवर्धिगणिक्षमाश्रमणने वलभीपुर में संघ एकत्रित करके जिन स्थविरोंको जो जो त्रुटित या अत्रुटित आगम याद थे उन्हें अपनी बुद्धिके अनुसार संकलन कर पुस्तकारूढ किया। सूत्रोंमें उस समयकी पद्धतिके अनुसार एक ही प्रकार के आलापक ( सदृश पाठ) बार बार आते थे उन्हें एक जगह ही लिखकर अन्यत्र 'वरणओ' के द्वारा संक्षिप्त किया । इस तरह आज जो अंग साहित्य उपलब्ध है वह देवर्धिगणि(१) महापरिनिव्वाणसुता (२) जैन साहित्य नो इतिहास पृ० ३६ ।
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