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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [१ पेजदोसविहत्ती णाणादो अहियमण्णं पत्थणिज्जं णाणमस्थि जेण तदहं केवली भुंजेज्ज । ण संजमहूँ; पत्तजहाक्खादसंजमादो । ण ज्झाण; विसईकयासेसतिहुवणस्स ज्झेयाभावादो। ण भुंजइ केवली भुत्तिकारणाभावादो त्ति सिद्धं । प्राप्त कर लिया है। तथा केवलज्ञानसे बड़ा और कोई दूसरा ज्ञान प्राप्त करने योग्य है नहीं जिससे उस ज्ञानकी प्राप्तिके लिये केवली जिन भोजन करें। इससे यह निश्चित हो जाता है कि केवली जिन ज्ञानकी प्राप्तिके लिये तो भोजन करते नहीं हैं। संयमके लिये केवली जिन भोजन करते हैं, यह भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उन्हें यथाख्यात संयमकी प्राप्ति हो चुकी है, ध्यानके लिये केवली जिन भोजन करते हैं यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उन्होंने पूर्णरूपसे त्रिभुवनको जान लिया है, इसलिये उनके ध्यान करने योग्य कोई पदार्थ ही नहीं रहा है । अतएव भोजन करनेका कोई कारण नहीं रहनेसे केवली जिन भोजन नहीं करते हैं यह सिद्ध हो जाता है।
विशेषार्थ-आगममें घातिया अघातियाके भेदसे कर्म दो प्रकारके बतलाये हैं। उनमेंसे जो जीवके केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तवीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व आदि क्षायिक भावोंका और मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिक भावोंका घात करते हैं उन्हें घातिया कर्म कहते हैं। तथा जो जीवके अव्याबाध और अवगाहनत्व आदि प्रतिजीवी गुणोंका घात करते हैं। तथा जिनके उदयका प्रधानतया कार्य संसारकी निमित्तभूत सामग्रीका प्रस्तुत करना है उन्हें अघातिया कर्म कहते हैं। इसप्रकार दोनों प्रकारके कर्मोंके कार्योंका विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि घातियाकर्म ही देवत्वके विरोधी हैं अघातिया कर्म नहीं, क्योंकि सर्वज्ञता, वीतरागता, निर्दोषता और हितोपदेशिता ये देवकी विशेषताएँ हैं जो घातिया कर्मोंके अभाव होनेपर ही प्रकट होती हैं। अतः अरहंत परमेष्ठीके चारों अघातिया कोंका उदय पाये जानेपर भी उनसे उनके देवत्वमें कोई बाधा नहीं आती है। यद्यपि नामकर्म के उदयसे शरीरादि और गति आदि रूप अनेक प्रकारके कार्य होते हैं तथा गोत्रकर्मके उदयसे उच्च और नीचपनेके भाव उत्पन्न होते हैं। पर केवली भगवान्के इन शरीरादिकमें राग और द्वेष उत्पन्न करनेके कारणभूत मोहनीय कर्मका अभाव हो गया है, इसलिये नाम और गोत्रकर्मके कार्य उनमें रहते हुए भी उन कार्यों में उनके राग और द्वेषभाव उत्पन्न नहीं होता है। आयुकर्म अवगाहनत्व नामक प्रतिजीवी गुणको प्रकट नहीं होने देता है, आयुकर्मके निमित्तसे उनके क्षेत्रजनित दोषोंकी संभावना की जा सकती है और अन्य क्षेत्रके प्रति जानेकी उत्कंठा भी कही जा सकती है। पर मोहनीयका अभाव हो जानेके कारण केवल आयु कर्मके निमित्तसे उनके न तो जिस क्षेत्रमें वे रहते हैं उस क्षेत्रके संसर्गसे दोष ही उत्पन्न होते हैं और न ऊर्ध्वगमनके प्रति उत्कंठा ही पाई जाती है।
(१) भुक्तिका-अ०, आ० । “भगवति बुभुक्षा नास्ति तत्कारणमोहाभावात् ।"-न्यायकुमु० पृ० ८५९ ।
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