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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती ? ६२. साहूणमायार-गोयरविहिं देसवेयालीयं वण्णेदि । चउव्यिहोवसग्गाणं बाबीसपरिस्सहाणं च सहणविहाणं सहणफलमेदम्हादो एदमुत्तरमिदि च उत्तरज्झेणं वण्णेदि । रिसीणं जो कप्पइ ववहारो तम्हि खलिदे जं पायच्छित्तं तं च भणइ कप्पववहारो। आदिमें सिर नवाकर नमस्कार करना तीसरी शिरोनति है । और थोस्सामि दंडकके अन्तमें सिर नवाकर नमस्कार करना चौथी शिरोनति है। इसप्रकार एक क्रियाकर्ममें चार शिरोनति होती हैं। इसी क्रियाकर्ममें ही चार शिरोनति करना अन्यत्र नहीं ऐसा कुछ नियम नहीं है। अथवा पहले जो क्रियाकर्म कह आये हैं उसमें भी चार शिरोनति करना चाहिये, क्योंकि अरहंत, सिद्ध, साधु और धर्मको प्रधान करके सभी क्रियाकर्मोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है। छठा भेद बारह आवर्तरूप है। सामायिक और त्थोस्सामि दंडकके प्रारंभ और अन्तमें मन, वचन और कायकी विशुद्धिकी अपेक्षा कुल मिलाकर बारह आवर्त होते हैं। अतएव एक क्रियाकर्ममें बारह आवर्त होते हैं ऐसा कहा है। यह सब विधि कृतिकर्म कही जाती है। इसप्रकार कृतिकर्म प्रकीर्णकमें उपर्युक्त समस्त विधिका कथन किया गया है।
१२. दशवैकालिक प्रकीर्णक साधुओंके आचार अर्थात् ज्ञानादिविषयक अनुष्ठानका और गोचर अर्थात् भिक्षाटनका वर्णन करता है। उत्तराध्ययन प्रकीर्णक चार प्रकारके उपसर्ग
(१) मायारगोयारवि-अ०, आ० । “आचारो ज्ञानाद्यनेकभेदभिन्नः गोचरो भिक्षाग्रहणविधिलक्षण:"-नन्दी० हरि० स० ४६। (२) "दसवेयालियं आचारगोयरविहिं वण्णेइ"-ध० सं० पृ० ९७। हरि० १०११३४॥ गो० जीव० जी० गा०३६८। 'जदिगोचारस्स विहिं पिंडविसुद्धि च जं परूवेदि । दसवेयालियसत्तं दह काला जत्थ संवत्ता॥"-अगप०(च०) गा०२४। "मणगं पडुच्च सेजंभवेण निज्जहिया दसज्झयणा'। वेयालियाइ ठविया तम्हा दसकालियं णामं ॥=विकाले अपराण्हे स्थापितानि न्यस्तानि द्रमपुष्पकादीनि अध्ययनानि
: तस्माद दशकालिकं नाम · दशाध्ययननिर्माणं च तद्वकालिकं च दशकालिकम् । पढमे धम्मपसंसा सोय इहेव जिणसासगम्मि त्ति । विइए धिइए सक्का काउं जे एस धम्मो त्ति ॥ तइए आयारकहा उखुड्डिया आयसंजमोवाओ। तह जीवसंजमो वि य होइ चउत्थम्मि अज्झयणे। भिक्खविसोही तवसंजमस्स गणकारियाउ पंचमए। छठे आयारकहा महई जोग्गा मयणस्स । वयणविभत्ती पुण सत्तमम्मि पणिहाणमट्ठमे भणिए । णवमे विणओ दसमे समाणिय एस भिक्खु त्ति ॥"-दश० नि०,हरि० गा० १५, २०-२३ । (३) "उत्तरज्झयणं उत्तरपदाणि वण्णइ"-ध० स०१० ९७। "उत्तरज्झयणं उग्गम्मुप्पायणेसणदोसगयपायच्छित्तविहाणं कालादिविसेसिदं वण्णेदि।"-ध० आ० ५० ५४५ "उत्तराध्ययनं वीरनिर्वाणगमनं तथा।"-हरि०१०११३४॥ "उत्तराणि अहिज्जंति उत्तरज्झयणं मदं जिणिदेहिं। बाबीसपरीसहाणं उवसग्गाणं च सहणविहिं ।। वण्णेदि तप्फलमवि एवं पण्हे च उत्तरं एवं । कदि गुरुसीसयाण पइण्णिय अट्ठमं तं खु॥"-अंगप० (च०) गा० २५-२६॥ गो० जीव० जी० गा० ३६८। "कम उत्तरेण पगय आयारस्सेव उवरिमाइ तु । तम्हा उत्तरा खल अज्झयणा हुँति णायव्वा ॥"-उत्तरा०नि० गा०३। 'पढमे विणओ बीए परिसहा दुल्लहंगया तइए । अहिगारे य उत्थे होइ पमायप्पमाए त्ति। - 'जीवाजीवा छत्तीसे॥"-उत्तरा०नि० गा०१८-२६(४) जम्हि आ० । (५) "कप्पववहारो साहूणं जोग्गमाचरणं अकप्पसेवणाए पायच्छित्तं च वण्णेइ"-ध० सं० पृ० ९८ । "तत्कल्प. व्यवहाराख्यं प्राह कल्पं तपस्विनाम् । अकल्प्यसेवनायाञ्च प्रायश्चित्तविधि तथा ॥"-हरि०१०।१३५ । गो० जीव० जी० गा० ३६८। अंगप० (च०) गा० २७। "कप्पम्मि कप्पिया खल मुलगणा व उत्तरगुणा य । ववहारे ववहरिया पायच्छित्ताऽऽभवंते य॥"-व्यवहारभा०पी० गा० १५४ । कल्पभा०पी० मलय० गा०२।
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