________________
१२४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती १ १६५. संमवाओणाम अंग दव्व-खेत्त-काल-भावाणं समवायं वण्णेदि । तत्थ दव्वसमवाओ। तं जहा, धम्मत्थिय-अधम्मत्थिय-लोगागास-एगजीवाणं पदेसा अण्णोणं सरिसा। कथं पदेसाणं दव्वत्तं ? ण; पज्जवहियणयावलंवणाए पदेसाणं पि दव्यत्तसिद्धीदो। सीमंत-माणुसखेत्त-उडुविमाण-सिद्धिखेत्ताणि चत्तारि वि सरिसाणि, एसो खेत्तसमवाओ।
१५. समवाय नामका अंग द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावोंके समवायका वर्णन करता है । उनमेंसे पहले द्रव्यसमवायका कथन करते हैं। वह इसप्रकार है-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीवके प्रदेश परस्पर समान हैं।
शंका-प्रदेशोंको द्रव्यपना कैसे सिद्ध हो सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि पर्यायार्थिक नयका अवलंबन करने पर प्रदेशोंके भी द्रव्यत्वकी सिद्धि हो जाती है। प्रदेशकल्पना पर्यायार्थिक नयकी मुख्यतासे होती है इसलिये पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करके प्रदेशमें द्रव्यत्वकी सिद्धि की है ।
प्रथम नरकका पहला इन्द्रक सीमन्तक बिल, मानुषक्षेत्र, सौधर्म कल्पका पहला इन्द्रक ऋजुविमान और सिद्धलोक ये चारों क्षेत्रकी अपेक्षा सदृश हैं। यह क्षेत्रसमवाय है।
विशेषार्थ-पहले नरकके पहले पाथड़ेके इन्द्रक बिलका नाम सीमन्तक है। जम्बू. द्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखंडद्वीप, कालोदकसमुद्र और मानुषोत्तर पर्वतके इस ओरका आधा पुष्करवरद्वीप यह सब मिलकर मानुषक्षेत्र है, क्योंकि मनुष्य इतने क्षेत्रमें ही पाये जाते हैं। सौधर्म स्वर्गके पहले पटलके प्रथम इन्द्रक विमानका नाम ऋजुविमान है। तथा जहाँ लोकके अग्रभागमें सिद्ध जीव निवास करते हैं उसे सिद्धिक्षेत्र कहते हैं। उपर्युक्त इन चारों स्थानोंका व्यास पेंतालीस लाख योजन है, इसलिये ये चारों क्षेत्रकी अपेक्षा समान हैं। णषट्केण अपक्रमेण युक्तत्वात् षट्कापक्रमयुक्तः । अस्तिनास्त्यादिभिः सप्तभङ्गः सद्भावो यस्येति सप्तभङ्गसद्भावः। अष्टानां कर्मणां गुणानां वा आश्रयत्वादष्टाश्रयः । नवपदार्थरूपेण वर्तनान्नवार्थः । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिसाधारणप्रत्येकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियरूपेषु दशसु स्थानेषु गतत्वाद्दशस्थानग इति ।" -पञ्चा० तत्त्व०। "संग्रहनये एक एव आत्मा । व्यवहारनयन संसारी मुक्तश्चेति द्विविकल्पः । 'अष्टविधकर्माश्रवयुक्तत्वादष्टाश्रवः.."-गरे० जीव० जी० गा० ३५६ । अंगप० गा० २४-२८। ". जत्तो कमसो सो सत्तभंगि.."-ध० सं० पृ० १००।
(१) “समवाये सर्वपदार्थानां समवायश्चिन्त्यते। स चतुर्विधः द्रव्यक्षेत्रकालभावविकल्पः.."-राजवा० श२० । ध० सं० पृ० १०१। ध० आ० प० ५४६ । हरि० १०१३० । सं० श्रुतभ० टी० श्लो०७। “सं संग्रहेण सादश्यसामान्येन अवेयंते ज्ञायन्ते जीवादिपदार्था द्रव्यकालभावानाश्रित्य अस्मिन्निनि समवायाङम.." -गो० जीव० जी० गा० ३५६ । अगप० गा० २९-३५ । “समवाए णं एगाइआणं एगुत्तरिआणं ठाणसयविवभिआणं भावाणं परूवणा आघविज्जइ दुवालसविहस्स य गणिपिडगस्स पल्लवगे समासिज्जइ..'नन्दी० सू० ४८ । सम० सू० १३९ । (२) “सिद्धिसीमन्तकोख्यविमाननरलोकजम् । प्रमाणं सममित्युक्तं तत्रैव क्षेत्रतस्तथा ॥"-हरि० १०॥३२ । ध० सं० पृ० १०१ । "चत्तारिलोगे समा सपक्खिं सपडिदिसिंसीमंतए नरए, समयक्खेत्ते, उडुविमाणे, ईसीपब्भारा पुढवी ।"-स्था० सू० ३२९ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org