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किदियम्म सरूववियारो
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विशेषार्थ - जिनदेव आदिकी वन्दना करते समय की जानेवाली क्रियाको कृतिकर्म कहते हैं । उस समय जो विधि की जाती है उसके अनुसार इसके छह भेद हो जाते हैं । पहला भेद आत्माधीन नामका है। इसका यह अभिप्राय है कि कृतिकर्म स्वयं अपनी रुचिसे करना चाहिये । जो कृतिकर्म पराधीन होकर किया जाता है उसका क्रियामात्र ही फल है, इसके अतिरिक्त उसका और कोई फल नहीं होता, क्योंकि पराधीन होकर जो कृतिकर्म किया जाता है उससे कर्मों का क्षय नहीं होता है । तथा पराधीन होकर किये गये कृतिकर्म से जिनेन्द्रदेव आदिकी आसादना होने की संभावना रहती है, अतः उससे कर्मबन्धका होना भी संभव है । इसलिये कृतिकर्म आत्माधीन होना चाहिये । वन्दना करते समय जिनदेव, जिनगृह और गुरुकी प्रदक्षिणा देकर नमस्कार करना प्रदक्षिणा है । यह कृतिकर्मका दूसरा भेद है । प्रदक्षिणा और नमस्कारका तीन वार करना तिक्खुत्त कहा जाता है । अथवा प्रत्येक दिन तीनों संध्याकालोंमें जिनदेव आदिकी तीन वार वन्दना करना तिक्खुत्त नामका कृतिकर्म कहा जाता है । तीनों सन्ध्याकालोंमें वन्दनाका विधान करके, 'वह अन्य कालमें नहीं करनी चाहिये' इसप्रकार अन्यकालमें वन्दना करनेका निषेध नहीं किया गया है किन्तु तीनों सन्ध्याकालों में वन्दना अवश्य करनी चाहिये, यह तीन वार वन्दना करनेके नियमका तात्पर्य है । इसप्रकार यह तिक्खुत्त नामका तीसरा भेद है । चौथा भेद अवनति है । इसका अर्थ भूमिपर बैठकर नमस्कार करना होता है । यह क्रिया तीन बार की जाती है । जब जिनेन्द्रदेव के दर्शनमात्रसे शरीर रोमांच हो जाता है तब भूमिपर बैठकर नमस्कार करे, यह पहला नमस्कार है । जब जिनदेवकी स्तुति कर चुके तब भूमिपर बैठकर नमस्कार करे, यह दूसरा नमस्कार है । अनन्तर उठकर सामायिक दंडकसे आत्मशुद्धि करके कषाय और शरीरका त्याग कर जिनदेवके अनन्तगुणोंका ध्यान करके तथा चौबीस तीर्थंकरोंकी बन्दना करके अनन्तर जिन, जिनालय और गुरुकी स्तुति करके जो भूमिपर बैठकर नमस्कार किया जाता है, वह तीसरा नमस्कार है । इसप्रकार प्रत्येक क्रियाकर्म में भूमि पर बैठकर तीन नमस्कार होते हैं । पाँचवाँ भेद शिरोनति है । यह विधि चार वार की जाती है । सामायिक प्रारंभ करते समय जिनदेवको मस्तक नवाकर नमस्कार करना यह पहली शिरोनति है । सामायिकके अन्तमें सिर नवाकर नमस्कार करना दूसरी शिरोनति है । त्योस्सामि दंडक के
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गाο१]
शिरांसि भवन्ति । त्रिशुद्धं मनोवचनकायशुद्धं क्रियाकर्म प्रयुङ्क्ते ।" - मूलाचा० टी० ७ १०४ ॥ “चतुः शिरस्त्रिद्विनतं द्वादशावर्तमेव च । कृतिकर्गाख्यमाचष्टे कृतिकर्मविधिं परम् ॥" - हरि० १० १३३ । “किदिकम्मं जिणवयणधम्मजिणालयाण चेत्तस्स | पंचगुरूणं णवहा वंदणहेदु परूवेदि ॥ साधीण-तियपदिक्खण-तियणदि-चसर-सुवारसावत्ते ।”- अगप० (चू०) गा० २२-२३ । “अर्हत्सिद्धाचार्यबहुश्रुतसाध्वादिनवदेवतावन्दनानिमित्तम् आत्माधीनता-प्रादिक्षण्यत्रिवार त्रिनति चतुः शिरोद्वादशावर्तादिलक्षणनित्यनैमित्तिकक्रियाविधानं च वर्णयति ।" - गो० जीव० जी० गा० ३६८ । “ दुवालसावत्ते कितिकम्भे पण्णत्ते । तं जहा -दुओणयं अहाजायं किइकम्मं बारसावयं । चउसिरं तिगुत्तं च दुपवेसं एगनिक्खमणं ॥" - सम० सू० १२० आ० नि० गा० १२०९ ।
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