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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [१ पेजदोसविहत्ती ८२. चउवीस वि तित्थयरा सावज्जा छज्जीवविराहणहेउसावयधम्मोवएसकारित्तादो । तं जहा, दाणं पूजा सीलमुववासो चेदि चउव्विहो सावयधम्मो । एसो चउव्विहो वि छज्जीवविराहओ; पयण-पायणग्गिसंधुक्कण-जालण-सूदि-सूदाणादिवावारेहि जीवविराहणाए विणा दाणाणुववत्तीदो । तरुवरछिंदण-छिंदावणिट्टपादण-पादावण-तद्दहणदहावणादिवावारेण छज्जीवविराहणहेउणा विणा जिणभवणकरणकरावणण्णहाणुववत्तीदो । ण्हवणोक्लेवण-संमज्जण-छुहावण-पु(फुल्लारोवण-धूवदहणादिवावारेहि जीवबहाविणाभावीहि विणा पूजकरणाणुववत्तीदो च। कथं सीलरक्खणं सावज्ज ? ण; सदारपीडाए विणा सीलपरिवालणाणुववत्तीदो। कधमुववासो सावज्जो ? ण; सपोदृत्थपाणिपीडाए विणा उववासाणुववत्तीदो। थावरजीवे मोत्तूण तसजीवे चेव मा मारेहु त्ति सावियाणमुवदेसदाणदो वा ण जिणा णिरवज्जा । अणसणोमोदरियउत्तिपरि
आगे शंका-समाधान द्वारा चतुर्विंशतिस्तवका स्वरूप बतलाते हैं
८२. शंका-छह कायके जीवोंकी विराधनाके कारणभूत श्रावकधर्मका उपदेश करनेवाले होनेसे चौवीसों ही तीर्थंकर सावध अर्थात् सदोष हैं। आगे इसी विषयका स्पष्टीकरण करते हैं-दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकोंके धर्म हैं। यह चारों ही प्रकारका श्रावकधर्म छह कायके जीवोंकी विराधनाका कारण है, क्योंकि भोजनका पकाना, दूसरेसे पकवाना, अग्निका सुलगाना, अमिका जलाना, अग्निका खूतना और खुतवाना आदि व्यापारोंसे होनेवाली जीवविराधनाके बिना दान नहीं बन सकता है। उसीप्रकार वृक्षका काटना और कटवाना, ईंटका गिराना और गिरवाना, तथा उनको पकाना और पकवाना आदि छह कायके जीवोंकी विराधनाके कारणभूत व्यापारके बिना जिनभवनका निर्माण करना अथवा करवाना नहीं बन सकता है । तथा अभिषेक करना, अवलेप करना, संमार्जन करना, चन्दन लगाना, फूल चढ़ाना और धूपका जलाना आदि जीववधके अविनाभावी व्यापारोंके बिना पूजा करना नहीं बन सकता है।
प्रतिशंका-शीलका रक्षण करना सावध कैसे है ?
शंकाकार-नहीं, क्योंकि अपनी स्त्रीको पीड़ा दिये बिना शीलका परिपालन नहीं हो सकता है, इसलिये शीलकी रक्षा भी सावध है।
प्रतिशंका-उपवास सावध कैसे है ?
शंकाकार-नहीं, क्योंकि अपने पेट में स्थित प्राणियोंको पीड़ा दिये बिना उपवास बन नहीं सकता है, इसलिये उपवास भी सावध है।
अथवा, 'स्थावर जीवोंको छोड़कर केवल त्रसजीवोंको ही मत मारों' श्रावकोंको इसप्रकारका उपदेश देनेसे जिनदेव निरवद्य नहीं हो सकते हैं।
(१) “दानपूजातपःशीललक्षणश्च चतुर्विधः । त्यागजश्चैव शारीरो धर्मो गृहनिषेविणाम् ॥" -हरि० १०८॥
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