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गा०]
चउबीसत्थवपरूवणं
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विशेषार्थ-ऊपर शंकाकारका कहना है कि तीर्थंकर श्रावकोंको दान, पूजा, शील और त्रसवधविरति आदिका उपदेश देते हैं तथा मुनियोंको अनशन आदि बारह प्रकारके तपोंके पालन करनेका उपदेश देते हैं, इसलिये वे निर्दोष नहीं हो सकते, क्योंकि इन क्रियाओंमें जीव-विराधना देखी जाती है। दानके लिये भोजनका पकाना, पकवाना, अग्निका जलाना, जलवाना, बुझाना, बुझवाना, हवाका करना, करवाना आदि आरंभ करना पड़ता है। पूजनके लिये मन्दिर या मूर्तिका बनाना, बनवाना, अभिषेक आदिका करना, करवाना आदि आरंभ करना पड़ता है। शीलके पालन करनेमें अपनी स्त्रीसे संयोगके कारण जीवोंका वध होता है। तथा त्रसवधसे विरतिके उपदेशमें स्थावरघातकी सम्मति प्राप्त हो जाती है। इसीप्रकार जब साधु अनशन आदिको करते हैं तब एक तो उनके पेटमें स्थित जीवोंकी विराधना होती है। दूसरे साधुओंको भी अनशनादिके करनेमें कष्ट होता है अतः तीर्थंकरका उपदेश सावध होनेसे वे निर्दोष नहीं कहे जा सकते हैं और इसलिये उनकी स्तुति नहीं करना चाहिये । वीरसेनस्वामीने इस शंकाका समाधान दो प्रकारसे किया है। प्रथम तो यह बतलाया है कि मिथ्यात्वादि पाँच बन्धके कारण हैं। इनमेंसे प्रारंभके चार तीर्थंकर जिनके नहीं पाये जाते हैं। यद्यपि उनके योगके निमित्तसे सातारूप कर्मोंका आस्रव होता है पर वह उदयरूप ही होता है अतः नवीन कर्मोंमें स्थिति और अनुभाग नहीं पड़ता है और स्थिति तथा अनुभागके बिना कर्मबन्धका कहना औपचारिक है। तथा पूर्वसंचित कर्मोंकी निर्जरा भी उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी होती रहती है, अतः तीर्थंकर जिन इनकी अपेक्षा तो सावध कहे नहीं जा सकते हैं । योगके विद्यमान रहनेसे यद्यपि उनके प्रवृत्तियाँ पाई अवश्य जाती हैं पर क्षायोपशमिक ज्ञान और कषायके नहीं रहनेसे वे सब प्रवृत्तियाँ निरिच्छ होती हैं, इसलिये वे प्रवृत्तियाँ भी सावद्य नहीं कही जा सकती हैं। यद्यपि एक पर्यायसे दूसरी पर्यायके प्रति जीव विना इच्छाके ही गमन करता है। तथा सुप्तादि अवस्थाओंमें भी बिना इच्छाके व्यापार देखा जाता है तो भी यहाँ कषायादि अतरंग कारणोंके विद्यमान रहनेसे वे सावद्य ही हैं निरवद्य नहीं; किन्तु तीर्थंकर जिन क्षीणकषायी हैं अतः उनकी प्रवृत्तियाँ पापास्रवकी कारण नहीं हैं, अतः तीर्थंकर जिन निरवद्य हैं। दूसरे सभी संसारी जीवोंकी प्रवृत्तियाँ सराग पाई जाती हैं अतः तीर्थकर जिन अपने उपदेश द्वारा उनके त्यागकी ओर संसारी जीवोंको लगाते हैं । जो पूरी तरहसे उनका त्याग करने में असमर्थ हैं उन्हें आंशिक त्यागका उपदेश देते हैं। और जो उनका पूरा त्याग कर सकते हैं उन्हें पूरे त्यागका उपदेश देते हैं । एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसा तथा आरंभ करना श्रावकोंका कर्तव्य है यह उनके उपदेशका सार नहीं है, किन्तु उनके उपदेशका सार यह है कि यदि स्तवः, तस्य प्रतिपादक शास्त्रं वा चतुर्विंशतिस्तव इत्युच्यते ।"-गो० जीव० जी० गा० ३६७ । अनगार. ८१३७ । हरि० १०।१३० । अंगप
गा० १४-१२। “चउवीसगत्थयस्स उ निक्खेवो होइ नाम निप्फन्नो। चउवीसगस्स छक्को थयस्स उ चउक्कओ होइ॥"-आ. नि. गा० १०६८।
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