________________
११४
धवलासहि कसा पाहुडे
[ पेज्जदोसविहत्ती १
णाणि उत्तमट्ठाण पडिकमणम्मि णिवदति । अट्ठाबीसमूलगुणाइचारविसय सव्वपडिक्कमणाणि इरियावंहयपडिकमणम्मि णिवदंति अवगयअइचारविसयत्तादो । तम्हा सत्त चेव पडिकमणाणि ।
प्रतिक्रमण उत्तमस्थान प्रतिक्रमणमें अन्तर्भूत होते हैं । अट्ठाईस मूलगुणोंके अतिचारविषयक समस्त प्रतिक्रमण ईर्यापथप्रतिक्रमणमें अन्तर्भूत होते हैं, क्योंकि ईर्यापथप्रतिक्रमण अवगत अतिचारोंको विषय करता है । इसलिये प्रतिक्रमण सात ही होते हैं ।
विशेषार्थ - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके निमित्तसे जो स्वीकृत व्रतोंमें दोष लग जाते हैं उनका निन्दा और गर्दा पूर्वक, मन, वचन और कायसे निवारण करना प्रतिक्रमण कहा जाता है । यहाँ द्रव्यसे आहार और शरीरादिकका, क्षेत्रसे वसतिका आदिका, कालसे प्रातः काल, सन्ध्याकाल, दिन, रात्रि, पक्ष, मास और वर्ष आदि कालोंका तथा भावसे चित्तकी व्याकुलता आदिका ग्रहण किया है । वह प्रतिक्रमण दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ऐर्यापथिक और औत्तमार्थिक के भेदसे सात प्रकारका है । दिनमें किये हुए अतिचारोंका शोधन करना दैवसिक प्रतिक्रमण कहलाता है । रात्रिमें किये हुए दोषों का शोधन करना रात्रिक प्रतिक्रमण कहा जाता है । पन्द्रह दिनमें किये गये दोषोंका मार्जन करना पाक्षिक प्रतिक्रमण कहा जाता है । चार माह में किये गये दोषोंका मार्जन करना चातुर्मासिक प्रतिक्रमण कहा जाता है । वर्ष भर में किये गये दोषोंका मार्जन करना सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कहा जाता है। छह जीवनिकायोंके संबन्धसे होनेवाले दोषोंका मार्जन करना ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण कहा जाता है । अट्ठाईस मूलगुणोंमें अतिचारोंके लग जाने पर उनके मार्जनके लिये जो प्रतिक्रमण किये जाते हैं वे सब ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं, क्योंकि अट्ठाईस मूलगुणसंबन्धी जितने दोष समझ में आ जाते हैं उनका परिमार्जन ऐर्यापथिक प्रतिक्रमणमें स्वीकार किया है । संन्यासविधिके समय जो प्रतिक्रमण किया जाता है वह औत्तमार्थिक प्रतिक्रमण कहलाता है । दीक्षाकालसे लेकर संन्यास ग्रहण करनेके कालतक लगे हुए सभी अतिचारोंके मार्जनके लिये किया गया सर्वातिचारिक प्रतिक्रमण और समाधिग्रहण करने के पहले तीन प्रकार के आहार के त्यागमें लगे हुए अतिचारोंके परिमार्जनके लिये किया गया त्रिविधाहारत्यागिक नामका प्रतिक्रमण, औत्तमार्थिक प्रतिक्रमणमें ही अन्तर्भूत हो जाते हैं । इसप्रकार प्रतिक्रमण सात प्रकारके ही होते हैं अधिक नहीं, यह निश्चित होता है ।
क्रमणायामन्तवर्भति । निषिद्धकागमनप्रतिक्रमणा लुञ्चप्रतिक्रमणा गोचारप्रतिक्रमणा अतीचारप्रतिक्रमणा च एैर्यापथिकादिप्रतिक्रमणासु लघुत्वादन्तर्भवन्ति । तत्राद्या पन्थाविचारप्रतिक्रमणायाम्, अन्त्या रात्रिप्रतिक्रमणायाम्, शेषे द्वे दैवसिकप्रतिक्रमणायाञ्च अन्तर्भवन्तीति विभागः । एतेन सप्त लघु प्रतिक्रमणा भवन्तीत्युक्तं भवति । " - अनगार० टी० ८।५८ ।
( १ ) - वहप - आ० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org