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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [१ पेज्जदोसविहत्ती वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते, शिवं च न परोपघातपरुषस्मृतेविद्यते । वधोपनयमभ्युपैति च पराननिघ्नन्नपि,
त्वयाऽयमतिदुर्गमः प्रशमहेतुरुयोतितः ॥६२॥" तम्हा चउवीसं पि तित्थयरा णिरवज्जा तेण ते वंदणिज्जा विबुहजणेण ।
८४. सुरदुंदुहि-धय-चामर-सीहासण-धवलामलछत्त-भेरि-संख-काहलादिगंथकंथंतो वट्टमाणत्तादो तिहुवणस्सोलंगदाणदो वा ण णिरवज्जा तित्थयरा ति णासंकणिज्जं; घाइचउक्काभावेण पत्तणवकेवललद्धिविरायियाणं सावज्जेण संबंधाणुववत्तीदो। एवमायिए चउवीसतित्थयरविसयदुण्णये णिराकरिय चउवीसं पि तित्थयराणं थवणविहाणं णाम-हवणा-दव्व-भावभेएण भिण्णं तप्फलं च चउवीसत्थओ परूवेदि ।
"कोई प्राणी दूसरेको प्राणोंसे वियुक्त करता है फिर भी वह वधसे संयुक्त नहीं होता है । तथा परोपघातसे जिसकी स्मृति कठोर हो गई है, अर्थात् जो परोपघातका विचार करता है, उसका कल्याण नहीं होता है। तथा कोई दूसरे जीवोंको नहीं मारता हुआ भी हिंसकपनेको प्राप्त होता है । इसप्रकार हे जिन ! तुमने यह अति गहन प्रशमका हेतु प्रकाशित किया है अर्थात् शान्तिका मार्ग बतलाया है ॥६२॥"
इसलिये चौबीसों तीर्थंकर निरवद्य हैं और इसीलिये वे विबुधजनोंसे वन्दनीय हैं ।
८४. यदि कोई ऐसी आशंका करे कि तीर्थंकर सुरदुंदभि, ध्वजा, चमर, सिंहासन, धवल और निर्मल छत्र, भेरी, शंख तथा काहल (नगारा) आदि परिग्रहरूपी गूदड़ीके मध्य विद्यमान रहते हैं और वे त्रिभुवनके व्यवस्थापक हैं अर्थात् त्रिभुवनको सहारा देते हैं, इसलिये वे निरवद्य नहीं हैं, सो उसका ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि चार धातिकर्मोंके अभावसे प्राप्त हुईं नौ केवल लब्धियोंसे वे सुशोभित हैं इसलिये उनका पापके साथ संबन्ध नहीं बन सकता है । इत्यादिक रूपसे चौबीस तीर्थंकरविषयक दुर्नयोंका निराकरण करके नाम, स्थापना द्रव्य और भावके भेदसे भिन्न चौबीस तीर्थङ्करोंके स्तवनके विधानका और उसके फलका कथन चतुर्विंशतिस्तव करता है।
(१) “वियोजयति 'परोपमर्दपुरुषस्मृतेविद्यते । वधाय नयमभ्युपैति · प्रथमहेतुरुद्योतितः ।"-सिद्ध० द्वा० ३।१६ । "उक्तं च-वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते ।"-सर्वार्थ० ७।१३। (२) “भिंगारकलसदप्पणधयचामरछत्तवीयणसुपइट्ठाइ य अठ्ठ मंगलाणि.."-ति० प० गा० ४९ । धम्मरसा० गा० १२१ । (३)-ठवणद-अ०, आ०, स०। "नाम ठवणा दविए भावे य थयस्स होइ निक्खोवो।"-आ०नि० १९३ । (भा०) "उसहादिजिणवराणं णामणिरुत्ति गुणाणुकित्ति च । काऊण उच्चिदूण य तिसुद्धिपणमो थवो णेओ॥" -मूलाचा० १।२४ । (४)-भावभेयभि-अ०, आ०। (५) "चउवीसयणिज्जुत्ती एत्तो उड्ढे पवक्खामि । णामं ठवणा दवे खेत्ते काले य होदि भावे य । एसो थवम्हि णेओ णिक्खेवो छव्विहो होइ ।"-मूलाचा०७। ४१.४२ । “तत्तत्कालसंबन्धिनां चतुर्विंशतितीर्थकराणां नामस्थापनाद्रव्यभावानाश्रित्य पंचमहाकल्याणचतुस्त्रिंशदतिशयाष्टमहाप्रातिहार्यपरमौदारिकदिव्यदेहसमवसरणसभाधर्मोपदेशादितीर्थकरमहिमस्तुतिः चतुर्विंशति
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