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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ कीरदे ? केवलणाणे समुप्पण्णे वि तत्थ तित्थाणुप्पत्तीदो । दिव्वझुणीए किमहूँ तत्थापउत्ती ? गणिंदाभावादो। सोहम्मिदेण तक्खणे चेव गणिंदो किण्ण ढोइदो ? ण काललद्धीए विणा असहेज्जस्स देविंदस्स तड्ढोयणसत्तीए अभावादो । सगपादमूलम्मि पडिवण्णमहव्वयं मोत्तूण अण्णमुद्दिस्सिय दिव्यज्झुणी किण्ण पयट्टदे ? साहावियादो । ण च सहाओ परपज्जणिओगारुहो; अव्ववत्थावत्तीदो । तम्हा चोत्तीसवासासेसकिंचिविसेसूणचउत्थकालम्मि तित्थुप्पत्ती जादेत्ति सिद्धं ।
५८.अण्णे के वि आइरिया पंचहि दिवसेहि अहहि मासेहि य ऊणाणि बाहत्तरिवासाणि त्ति वड्ढमाणजिणिंदाउअं परूवेंति ७१-३-२५ । तेसिमहिप्पाएण गब्भत्थ-कुमारछदुमत्थ-केवलिकालाणं परूवणा कीरदे । तं जहा, आसाढजोण्हपक्खछट्टीए कुंडपुर
समाधान-भगवान महावीरको केवलज्ञानकी उत्पत्ति हो जाने पर भी छयासठ दिन तक धर्मतीर्थकी उत्पत्ति नहीं हुई थी, इसलिये केवलिकालमेंसे छयासठ दिन कम किये गये हैं।
शंका-केवलज्ञानकी उत्पत्तिके अनन्तर छयासठ दिन तक दिव्यध्वनिकी प्रवृत्ति क्यों नहीं हुई ?
समाधान-गणधर न होनेसे उतने दिन तक दिव्यध्वनिकी प्रवृत्ति नहीं हुई।
शंका-सौधर्म इन्द्रने केवलज्ञानके प्राप्त होनेके समय ही गणधरको क्यों नहीं उपस्थित किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि काललब्धिके बिना सौधर्म इन्द्र गणधरको उपस्थित करने में असमर्थ था, उसमें उस समय गणधरको उपस्थित करनेकी शक्ति नहीं थी।
_शंका-जिसने अपने पादमूलमें महाव्रत स्वीकार किया है ऐसे पुरुषको छोड़कर अन्यके निमित्तसे दिव्यध्वनि क्यों नहीं खिरती है ?
समाधान-ऐसा ही स्वभाव है । और स्वभाव दूसरोंके द्वारा प्रश्न करने योग्य नहीं होता है, क्योंकि यदि स्वभाव में ही प्रश्न होने लगे तो कोई व्यवस्था ही न बन सकेगी।
अतएव कुछ कम चौतीस वर्षप्रमाण चौथे कालके रहने पर तीर्थकी उत्पत्ति हुई यह सिद्ध हुआ।
५८. कुछ अन्य आचार्य पाँच दिन और आठ माह कम बहत्तर वर्षप्रमाण अर्थात् ७१ वर्ष ३ माह और पच्चीस दिन वर्द्धमान जिनेन्द्रकी आयु थी ऐसा प्ररूपण करते हैं। उन आचार्योंके अभिप्रायानुसार गर्भस्थकाल, कुमारकाल, छद्मस्थकाल और केवलिकालका प्ररूपण करते हैं। वह इसप्रकार है-आषाढ़ महीनाके शुक्लपक्षकी षष्ठीके दिन कुंडपुर
(१) "असहायस्य"-ध० आ० ५० ५३५ । (२)-वसेसे कि-आ० । (३) “अण्णे के वि आइरिया पंचहि दिसेहि अट्ठयमासेहि य ऊणाणि वाहत्तरिवासाणि त्ति वड्ढमाणजिणिंदाउअं परूवंति।"-ध० आ० ५० ५३५ । (४) "आषाढशुक्लषष्ठयां तु गर्भावतरणेऽर्हतः । उत्तराफाल्गुनीनीडमुडुराजा द्विजः श्रितः ।" -हरि० २।२३। (५) "कुंडलपुरणगराहिव""."-ध० आ० ५० ५३५ ।
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