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________________ ७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ कीरदे ? केवलणाणे समुप्पण्णे वि तत्थ तित्थाणुप्पत्तीदो । दिव्वझुणीए किमहूँ तत्थापउत्ती ? गणिंदाभावादो। सोहम्मिदेण तक्खणे चेव गणिंदो किण्ण ढोइदो ? ण काललद्धीए विणा असहेज्जस्स देविंदस्स तड्ढोयणसत्तीए अभावादो । सगपादमूलम्मि पडिवण्णमहव्वयं मोत्तूण अण्णमुद्दिस्सिय दिव्यज्झुणी किण्ण पयट्टदे ? साहावियादो । ण च सहाओ परपज्जणिओगारुहो; अव्ववत्थावत्तीदो । तम्हा चोत्तीसवासासेसकिंचिविसेसूणचउत्थकालम्मि तित्थुप्पत्ती जादेत्ति सिद्धं । ५८.अण्णे के वि आइरिया पंचहि दिवसेहि अहहि मासेहि य ऊणाणि बाहत्तरिवासाणि त्ति वड्ढमाणजिणिंदाउअं परूवेंति ७१-३-२५ । तेसिमहिप्पाएण गब्भत्थ-कुमारछदुमत्थ-केवलिकालाणं परूवणा कीरदे । तं जहा, आसाढजोण्हपक्खछट्टीए कुंडपुर समाधान-भगवान महावीरको केवलज्ञानकी उत्पत्ति हो जाने पर भी छयासठ दिन तक धर्मतीर्थकी उत्पत्ति नहीं हुई थी, इसलिये केवलिकालमेंसे छयासठ दिन कम किये गये हैं। शंका-केवलज्ञानकी उत्पत्तिके अनन्तर छयासठ दिन तक दिव्यध्वनिकी प्रवृत्ति क्यों नहीं हुई ? समाधान-गणधर न होनेसे उतने दिन तक दिव्यध्वनिकी प्रवृत्ति नहीं हुई। शंका-सौधर्म इन्द्रने केवलज्ञानके प्राप्त होनेके समय ही गणधरको क्यों नहीं उपस्थित किया ? समाधान-नहीं, क्योंकि काललब्धिके बिना सौधर्म इन्द्र गणधरको उपस्थित करने में असमर्थ था, उसमें उस समय गणधरको उपस्थित करनेकी शक्ति नहीं थी। _शंका-जिसने अपने पादमूलमें महाव्रत स्वीकार किया है ऐसे पुरुषको छोड़कर अन्यके निमित्तसे दिव्यध्वनि क्यों नहीं खिरती है ? समाधान-ऐसा ही स्वभाव है । और स्वभाव दूसरोंके द्वारा प्रश्न करने योग्य नहीं होता है, क्योंकि यदि स्वभाव में ही प्रश्न होने लगे तो कोई व्यवस्था ही न बन सकेगी। अतएव कुछ कम चौतीस वर्षप्रमाण चौथे कालके रहने पर तीर्थकी उत्पत्ति हुई यह सिद्ध हुआ। ५८. कुछ अन्य आचार्य पाँच दिन और आठ माह कम बहत्तर वर्षप्रमाण अर्थात् ७१ वर्ष ३ माह और पच्चीस दिन वर्द्धमान जिनेन्द्रकी आयु थी ऐसा प्ररूपण करते हैं। उन आचार्योंके अभिप्रायानुसार गर्भस्थकाल, कुमारकाल, छद्मस्थकाल और केवलिकालका प्ररूपण करते हैं। वह इसप्रकार है-आषाढ़ महीनाके शुक्लपक्षकी षष्ठीके दिन कुंडपुर (१) "असहायस्य"-ध० आ० ५० ५३५ । (२)-वसेसे कि-आ० । (३) “अण्णे के वि आइरिया पंचहि दिसेहि अट्ठयमासेहि य ऊणाणि वाहत्तरिवासाणि त्ति वड्ढमाणजिणिंदाउअं परूवंति।"-ध० आ० ५० ५३५ । (४) "आषाढशुक्लषष्ठयां तु गर्भावतरणेऽर्हतः । उत्तराफाल्गुनीनीडमुडुराजा द्विजः श्रितः ।" -हरि० २।२३। (५) "कुंडलपुरणगराहिव""."-ध० आ० ५० ५३५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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