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________________ गा० १] वड्ढमाणस्स प्राउपरिमाणादिणिरूवणं छंदुमत्थकालो । तीसं वस्साणि केवलिकालो। एदेसि तिण्हं पि कालाणं समासो बाहत्तरिवासाणि । एदाणि [पण्णरसदिवसेहि अट्ठमासेहि य अहिय-] पंचहत्तरिवासेसु सोहिदे वड्ढमाणजिणिंदे णिव्वुदे संते जो सेसो चउत्थकालो तस्स पमाणं होदि। ___६५७. एदम्हि छावहिदिवसूणकेवलिकाले पक्खित्ते णवदिवसछम्मासाहियतेत्तीसवासाणि चउत्थकाले अवसेसाणि होति । छोसहिदिवसावणयणं केवलकालम्मि किम तीस वर्ष केवलिकाल है। इसप्रकार इन तीनों कालोंका जोड़ बहत्तर वर्ष होता है। इस बहत्तर वर्षप्रमाण कालको पन्द्रह दिन और आठ महीना अधिक पचहत्तर वर्षमेंसे घटा देने पर, वर्द्धमान जिनेन्द्रके मोक्ष जाने पर जितना चतुर्थकाल शेष रहता है उसका प्रमाण होता है। 8 ५७. इस कालमें छयासठ दिन कम केवलिकाल अर्थात् २६ बर्ष, नौ महीना और चौबीस दिनके मिला देने पर चतुर्थ कालमें नौ दिन और छह महीना अधिक तेतीस वर्ष बाकी रहते हैं। विशेषार्थ-नये बर्षका प्रारम्भ श्रावण कृष्णा प्रतिपदासे होता है और भगवान महावीरकी आयु बहत्तर वर्ष प्रमाण थी। जब भगवान महावीर स्वामी मोक्ष गये तब चतुर्थ कालमें तीन वर्ष आठ माह और पन्द्रह दिन बाकी थे। अतः चतुर्थ कालमें पचहत्तर वर्ष आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहने पर भगवान् महावीर स्वामी गर्भमें आये यह निश्चित होता है। इसमेंसे गर्भसे लेकर कुमारकालके तीस बर्ष और दीक्षाकालके बारह वर्ष इसप्रकार व्यालीस वर्ष कम कर देने पर चतुर्थ कालमें तेतीस वर्ष आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहने पर भगवान महावीरको केवलज्ञान प्राप्त हुआ। पर केवलज्ञान प्राप्त होनेके अनन्तर ही धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति नहीं हुई, क्योंकि दो माह और छह दिन तक गणधरके नहीं मिलनेसे भगवानकी दिव्यध्वनि नहीं खिरी । अतः तेतीस वर्ष आठ माह और पन्द्रह दिनमेंसे दो माह तथा छह दिनके और भी कम कर देने पर चतुर्थ कालमें तेतीस वर्ष छह माह और नौ दिन बाकी रहने पर धर्मतीर्थकी उत्पत्ति हुई ऐसा सिद्ध होता है । शंका-केवलिकालमेंसे छयासठ दिन किसलिये कम किये गये हैं ? प्पिणीए. दुस्समसुसमाए समाए बहुविइक्कंताए सागरोवमकोडाकोडीए बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिआए पंचहत्तरीए वासेहिं अद्धनवमेहि अ मासेहि सेसेहि समणे भगवं महावीरे चरमतित्थयरे पुवतित्थयरनिद्दिठे माहणकुण्डग्गामे नयरे उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगुत्तस्स भारिआए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवगएणं आहारवक्कंतीए भववक्कंतीए सरीरवक्कंतीए कुच्छिसि गब्भताए वक्कते।"-कल्प० सू० २। “अत्थेत्थ भरहवासे कुण्डग्गामं पुरं गुणसमिद्धं । तत्थ य नरिंदवसहो सिद्धत्थो नाम नामेणं ॥ तस्स य बहुगुणकलिया भज्जा तिसल त्ति रूवसंपन्ना। तीए गब्भम्मि जिणो आयाओ चरिमसमयम्मि ॥"-पउम० २।२१-२२ । आ० नि० भा० गा० ५२। (१) “एदाणि पंचहत्तरिवासेसु सोहिदे वड्ढमाणजिणिदे णिव्वुदे संते "-ध० आ० ५० ५३५ । (२) ध० आ० ५० ५३५ । "षट्षष्टिदिवसान् भूयो मौनेन विहरन् विभुः।"-हरि० श्लो० ॥६१ । "षट्षष्टिरहानि न निर्जगाम दिव्यध्यनिस्तस्य।"-इन्द्र० श्लो० ४२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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