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गा० ? ]
एत्थु उज्जतीओ गाहाओ
एवं केवल कालो रूविदो ।
वड्ढमाणस्स णिव्वाणकाल परूवणं
"वासाणूणत्तीसं पंच य मासे य वीस दिवसे य । गरे बारह दिणेहि ( गणेहि ) विह रित्ता ॥ ३०॥ पच्छा पावाणयरे कत्तियमासस्स किण्ह्चोद्दसिएँ । सादीर रत्तीए सेसरयं छेतु णिव्वाओं ॥ ३१ ॥ "
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६ ६२. परिणिच्बुदे जिणिंदे चउत्थकालस्स अन्यंतरे सेसं वांसा तिण्णि मासा अट्ठ दिवसा पण्णारस ३-८-१५ | संपहि कत्तियमासम्हि पण्णरसदिवसेसु मग्गसिरादितिण्णिवासेसु अहमासेसु च महावीरणिव्वाणगयदिवसादो गदेसु सावणमासर्पडिवयाए दुस्समकालो ओइण्णो । इमं कालं वड्ढमाणजिनिंदाउअम्मि पक्खित्ते दसदिव साहिय-पंचहत्तरिवासावसेसे चउत्थकाले सग्गादो वड्ढमाणजिनिंदो ओदिण्णो होदि ७५-०-१० । ६३. दोसु वि उवदेसेस को एत्थ समंजसो ? एत्थ ण बाहइ जीब्भमेलाइरिय। अब इस विषय में उपयोगी गाथाएं दी जाती हैं
“उनतीस वर्ष, पाँच मास और बीस दिन तक ऋषि, मुनि, यति और अनगार इन चार प्रकारके मुनियों और बारह गणों अर्थात् सभाओंके साथ विहार करके पश्चात् भगवान् महावीरने पावानगर में कार्तिक माह की कृष्णा चतुर्दशी के दिन स्वाति नक्षत्रके रहते हुए रात्रि के समय शेष अघातिकर्मरूपीं रजको छेदकर निर्वाणको प्राप्त किया ||३०-३१॥"
इसप्रकार केवलिकालका प्ररूपण किया ।
९६२. महावीर जिनेन्द्र के मोक्ष चले जाने पर चतुर्थ कालमें तीन वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहे थे। जिस दिन महावीर जिन निर्वाणको प्राप्त हुए उस दिन से कार्तिक माह के पन्द्रह दिन और मार्गशीर्षमाह से लेकर तीन वर्ष आठ माह कालके व्यतीत हो जाने पर श्रावण माहकी प्रतिपदासे दुःषमाकाल अवतीर्ण हुआ । इस तीन वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन प्रमाण कालको वर्द्धमान जिनेन्द्रकी इकहत्तर वर्ष, तीन माह और पच्चीस दिन प्रमाण आयुमें मिला देने पर पचहत्तर वर्ष और दस दिनप्रमाण काल चतुर्थ कालमेंसे शेष रहने पर वर्द्धमान जिनेन्द्र स्वर्गसे अवतीर्ण हुए ।
६ ६३. शंका- इन दोनों ही उपदेशों में से यहाँ कौनसा उपदेश ठीक है ?
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....... आ० ।
समाधान - एलाचार्य के शिष्यको अर्थात् जयधवलाकार श्री वीरसेनस्वामीको इस (१) बारहदिहि विहरत्तो अ० । बारहदिण्णेहि विहरत्ता स० । बारहदिण्णेहि "बारहहि गणेहि विहरंतो " - ध० आ० प० ५३६ । ( २ ) - ए रत्तीए अ० अ० । “किण्हचोदसिए सादीए रत्तीए.."_ " - ध० आ० प० ५३६ । - ए रत्तीए सेसरयं तित्थयरो छेत्तु णिव्वाओ स० । (३) छेत्तु महावीर णि - अ०, आ०, । (४) उद्धृते इमे - ध० आ० प० ५३६ । (५) "वासाणि तिण्णि" ध० आ० । ( ६ ) - पडिवयूण दु - अ० आ० । ( ७ ) "एत्थ ण बाहइ जिब्भमेलाइरियवच्छओ अलद्धोवदेसत्तादो, दोण्णमेक्स वाहाणुवलंभादो
"-ध० आ० प०
५३६ ।
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