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गा? ] सुदक्खंधपमाणपरूवणं
६१ मुक्कडं ॥३४॥” इच्चाइ । एदेहि चदुहि पदेहि एगो गंथो । एदेण पंमाणेण अंगबाहिराणं चोदसण्हं सामाइयादिपइण्णयअज्झयणाणं पदसंखा गंथसंखा च परूविजदे । जत्तिएहि अक्खरेहि अत्थोवलद्धी होदि तेसिमक्खराणं कलावो अत्थपदं णाम । तं जहा, "प्रमाणपरिगृहीतार्थकदेशे वस्त्वध्यवसायो नयः ॥३५॥” इत्यादि । उत्तं च
"पदमत्थस्स निमेणं पदमिह अत्थरहियमणहिलप्पं ।
तम्हा आइरियाणं अत्थालावो पदं कुणइ ॥३६॥" है ॥३४॥" ऐसे चार प्रमाणपदोंका एक ग्रन्थ अर्थात् श्लोक होता है । इस प्रमाणपदके द्वारा चौदह अंगबाह्यरूप सामायिक आदि प्रकीर्णकोंके अध्यायोंके पदोंकी संख्या और श्लोकोंकी संख्या कही जाती है।
विशेषार्थ-व्याकरणके नियमानुसार सुबन्त और तिङन्त पद कहे जाते हैं । प्रकृतमें इनकी विवक्षा नहीं है। यहां पदके जो तीन भेद कहे हैं उनमेंसे प्रमाणपद और मध्यमपद अक्षरोंकी गणनाकी मुख्यतासे कहे गये हैं और अर्थपद अर्थबोधकी मुख्यतासे कहा गया है। मध्यमपदसे द्वादशांगरूप द्रव्यश्रुतके अक्षरोंकी गणना की जाती है और प्रमाणपदसे द्वादशांगके सिवाय द्रव्यश्रुतके अक्षरोंकी गणना की जाती है। अनुष्टुप् श्लोक ३२ अक्षरोंका होता है और उसमें चार पद माने गये हैं। इस नियमके अनुसार आठ अक्षरोंका एक प्रमाणपद समझना चाहिये। शिखरणी आदि छंदोंमें ३२ से अधिक अक्षर भी पाये जाते हैं, तो भी प्रमाणपदकी अपेक्षा गणना करते समय वहाँ भी एक पदमें आठ अक्षर लिये जायगे। इसीप्रकार गद्य ग्रंथोंमें भी प्रत्येक पदका प्रमाण आठ अक्षर ही लिया जाता है। यहाँ एक पदमें सुबन्त या तिङन्त कई पद आ जायें या एक भी पद न आवे तो भी इससे आठ अक्षरोंके क्रमसे पदकी गणनामें कोई अन्तर नहीं पड़ता। मध्यमपदके अक्षर आगे बतलाये हैं वहां भी यह क्रम समझना चाहिये । पर अर्थपद अर्थबोधकी मुख्यतासे लिया जाता है। उसमें अक्षरोंकी गणनाकी मुख्यता नहीं है।
जितने अक्षरोंसे अर्थका बोध होता है उतने अक्षरोंके समुदायको अर्थपद कहते हैं। जैसे, "प्रमाणपरिगृहीताथैकदेशे वस्त्वध्यवसायो नयः” इत्यादि । अर्थात् “प्रमाणके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थके एकदेशमें वस्तुके निश्चय करनेको नय कहते हैं ॥३५॥” इस वाक्यसे नयरूप अर्थका बोध होता है। इसलिये यह एक अर्थपद है। कहा भी है___ "श्रुतज्ञानमें पद अर्थका आधार है, किन्तु जो पद अर्थरहित होता है वह अनभिलाप्य
(१) “धम्मो मंगलमुक्किठें अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो॥" -दशवै० गा०१। (२) “चतुर्दशप्रकारं स्यादंगबाह्यं प्रकीर्णकम् । ग्राह्यं प्रमाणमेतस्य प्रमाणपदसंख्यया ॥" -हरि० १०॥१२५। (३) "एक द्वित्रिचतुःपञ्चषट्सप्ताक्षरमर्थवत् । पदमाद्यम्"-हरि० १०१२३ । 'जाणदि अत्थं सत्थं अक्खरबहेण जेत्तियणेव । अत्थपयं तं जाणह घडमाणय सिग्घमिच्चादि ॥"-अंगप० गा०३। "यावताऽक्षरसमूहेन विवक्षितार्थो ज्ञायते तदर्थपदम् । दण्डेन शालिभ्यो गां निवारय, त्वमग्निमानयेत्यादयः ।" -गो० जीव० जी० गा० ३३६। (४) ध० सं० पृ० ८३ ।
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