Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
१ पेज्जदोसविहत्ती
७१. संपहि सुदणाणस्स पदसंखा वुच्चदे । तं जहा, एत्थ पमाणपदं अत्थपदं मज्झिमपदं चेदितिविहं पदं होदि । तत्थ पमणपदं अट्ठक्खरणिप्पण्णं, जहा, "धम्मो मंगलहोते हैं । तथा अं, अः, क और प ये चार योगवाह होते हैं । इसप्रकार सत्ताईस स्वर, तेतीस व्यञ्जन और चार योगवाह सब मिलकर चौंसठ अक्षर होते हैं । इनके एक संयोगी अर्थात् प्रत्येक, द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी आदि चोंसठ संयोगी अक्षरोंका प्रमाण लाने पर कुल द्रव्य श्रुतके अक्षरोंका प्रमाण ऊपर कही गई बीस संख्याप्रमाण होता है । इन संयोगी मंगोंकी संख्या उत्पन्न करनेका नियम निम्नप्रकार है
चौंसठसे लेकर एक तक प्रतिलोम क्रमसे भाज्यराशि स्थापित करो और उसके नीचे एकसे लेकर चोंसठ तक अनुलोम क्रमसे भागहार राशि स्थापित करो । यहां भाज्यको अंश और भागहारको हार कहते हैं । अनन्तर जितने संयोगी भंग निकालने हों वहां तकके अंशोंको परस्पर गुणा करके और हारोंको परस्पर गुणा करके लब्ध अंशोंके प्रमाण में लब्ध हारोंके प्रमाणका भाग देने पर उतने संयोगी भंग आ जाते हैं । यथा- एक संयोगी भंग निकालने पर चौंसठ अंशमें एक हारका भाग देने पर चौंसठ एक संयोगी भंग आ जाते हैं । द्विसंयोगी भंग निकालने पर ६४x६३ = ४०३२ में १x२= २ का भाग देने पर २०१६ द्विसंयोगी भंग आ जाते हैं । इसीप्रकार आगे भी समझना चाहिये । यथा६४ ६३ ६२ ६१६० ५६ ५८ ५७ ५६ ५५ ५४ ५३ से १ तक । १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ १० ११ १२ से ६४ तक । ऊपर जो बीस अंक प्रमाण कुल अक्षर कह आये हैं उन्हें एक साथ लानेका नियम यह है कि १ १ १ १ इसप्रकार चौंसठ संख्याका विरलन करके और विरलित राशिके प्रत्येक एक पर देयरूपसे २ इस संख्याको देकर परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसमें से एक कम कर देने पर बीस अंकप्रमाण समस्त द्रव्यश्रुतके अक्षर आ जाते हैं । विरलन राशि ६४; देयराशि २ २×२×२x२x२×२x२= १८४४६७४४०७३७०६५५१६१६ इसमेंसे १ अंक कम करने पर द्रव्यश्रुतके अक्षर होते हैं ।
६०
१ १ १ १ १ १ १ = ६४ बार
६७१. अब श्रुतज्ञानके पदोंकी संख्या कहते हैं । वह इसप्रकार है- प्रमाणपद, अर्थपद और मध्यमपद इसप्रकार पद तीन प्रकारका है । उनमेंसे जो आठ अक्षरोंसे बनता है वह प्रमाणपद कहा जाता है । जैसे, “धम्मो मंगलमुक्कट्ठ" इत्यादि । अर्थात् धर्म उत्कृष्ट मंगल
(१) “पदमर्थमदं ज्ञेयं प्रमाणपदमित्यपि । मध्यमं पदमित्येवं त्रिविधं तु पदं स्थितम् ।। " - हरि० १०।२२। "द्वितीयं तु पदमष्टाक्षरात्मकम् " - हरि० १०।२३ । ( २ ) " छंदपमाणपबद्धं पमाणपयमेत्थ मुणह जं तं खु ।।" –अंगप० गा० ४ १ “अष्टाक्षरादिसंख्यया निष्पन्नोऽक्षरसम्हः प्रमाणपदम् । नमः श्रीवर्धमानायेत्यादि । ” -गो० जीव० जी० गा० ३३६ |
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