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दद
जयधवलासहिदे कसा पाहुडे
[ पेज्जदोसविहत्ती १
गाहाओ आइरियपरंपराए आगच्छंमाणीओ अंज्जमंखु-णागहत्थीणं पत्ताओ । पुणो तेसिं दोहं पि पादमूले असीदिसदगाहाणं गुणहरमुहकमलविणिग्गयाणमत्थं सम्मं सोऊण जयिव सहभडारण पवयणवच्छलेण चुण्णिसुतं कयं ।
६६. जेणे सव्वे चि आइरिया जियचउकसाया भग्गपंचिंदियपसरा वू (चू) रियचउसण सेण्णा ईड्ढि -रस-सादगारवुम्मुक्का सरीखदिरित्तासेसपरिग्गहकलंकुत्तिष्णा एक्कसंथाए चैत्र सयलगंथत्थावहारया अलीयकारणाभावेण अमोहवयणा तेण कारणेणेदे" पमाणं । “वर्कैतृप्रामाण्याद् वचनस्य प्रामाण्यम् ||३२||” इति न्यायात् एदेसिमाइरियाणं वक्खाणमुवसंहारो च पमाणमिदि घेत्तव्वं, प्रमाणीभूत पुरुषपंक्तिक्रमायातवचनकलापस्य नाप्रामायम् अतिप्रसंगात् । विशेषार्थ -ऊ - ऊपर जो पेज्जपाहुड सोलह हजार पदप्रमाण बतलाया है वह ज्ञानप्रवाद नामक पांचवें पूर्वकी दसवीं वस्तुके मूल पेज्जपाहुडका प्रमाण समझना चाहिये । यहाँ पदसे मध्यमपद लेना चाहिये, क्योंकि द्वादशांगकी गणना मध्यमपदोंके द्वारा ही की गई है ।
पुनः वे ही सूत्र - गाथाएँ आचार्य परंपरासे आती हुई आर्यमंतु और नागहस्ती आचार्यको प्राप्त हुई । पुनः उन दोनों ही आचार्योंके पादमूलमें गुणधर आचार्य के मुखकमलसे निकली हुईं उन एक सौ अस्सी गाथाओंके अर्थको भली प्रकार श्रवण करके प्रवचनवत्सल ग्रतिवृषभ भट्टारकने उनपर चूर्णिसूत्रोंकी रचना की ।
६९. इसप्रकार जिसलिये ये सर्व ही आचार्य चारों कषायों को जीत चुके हैं, पाँचों इन्द्रियोंके प्रसारको नष्ट कर चुके हैं, चारों संज्ञारूपी सेनाको चूरित कर चुके हैं, ऋद्धिगारव, रसगारव और सादगारवसे रहित हैं, शरीरसे अतिरिक्त बाकीके समस्त परिग्रहरूपी कलंक से मुक्त हैं, एक आसनसे ही सकल ग्रंथोंके अर्थको अवधारण करनेमें समर्थ हैं और असत्यके कारणोंके नहीं रहनेसे मोहरहित वचन बोलते हैं इसकारण ये सब आचार्य प्रमाण हैं । "वक्त की प्रमाणतासे वचनकी प्रमाणता होती है ॥ ३२ ॥ | " ऐसा न्याय होनेसे इन आचार्योंका व्याख्यान और उनके द्वारा उपसंहार किया गया ग्रन्थ प्रमाण है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि प्रामाणिक पुरुषपरंपराक्रमसे आया हुआ वचनसमुदाय अप्रमाण नहीं हो सकता है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जायगा ।
(१) - माणेओ अ० आ०, स० । (२) इन्द्र० श्लो० १५४ । (३) "तेन ततो यचिपतिना तद्गाथावृत्तिसूत्ररूपेण । रचितानि षट्सहस्रग्रन्थान्यथ चूर्णिसूत्राणि ॥ " - इन्द्र० इलो० १५६ । ( ४ ) इद्धि-आ०, इद्धीअ० । “गारवाः परिग्रहगताः तीव्राभिलाषाः ।" - मूलारा० द० गा० ११२१ । " ऋद्धित्यागासहता ऋद्धिगौरवम्, अभिमतरसात्यागोऽनभिमतानादरश्च नितरां रसगौरवम् । निकामभोजने निकामशयनादौ वा आसक्तिः सातगौरवम् ।" - मूलारा० विजयो० गा० ६१३ । " इड्ढीगारवे रसगारवे सातागारवे = तत्र ऋद्ध्या नरेन्द्रादिपूजालक्षणया आचार्यत्वादिलक्षणया वा अभिमानद्वारेण गौरवं ऋद्धिगौरवं रसो रसनेन्द्रियार्थो मधुरादिः सातं सुखमिति । अथवा ऋद्धयादिष गौरवमादर इति ।" - स्था०, टी० ३।४।२१७। उत्तरा०, टी० २७१९ । (५) - द प अ० आ० । (६) " मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात् । " - न्यायसू० २१६८ " वक्तृप्रामाण्याद्विना न वचनप्रामाण्यसिद्धिः ।" - मुलारा० विजयो० गा० ७५७ ।
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