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गा...] धम्मुवदेसठ्ठाणवियारो
७३ “णिसंसयकरो वीरो महावीरो जिणुत्तमो ।
राग-दोस-भयादीदो धम्मतित्थस्स कारओ ॥१६॥" ६५५. कत्थ कहियं ? सेणियराए सचेलणे महामंडलीए सयलवसुहामंडलं भुजंते मगहामंडल-तिलओवमरायगिहणयर-णेरयिदिसमहिडिय-विउलगिरिपव्वए सिद्धचारणसेविए बारहगणपरिवेड्ढिएण कहियं । उत्तं च
"पंचसेलपुरे रम्मे, विउले पव्वदुत्तमे । णाणादुमसमाइण्णे सिद्धचारणसेविदे ॥१७॥ ऋषिगिरिरैन्द्राशायरं चतुरस्रो याम्यदिशि च वैभारः । विपुलगिरिनैऋत्यामुभौ त्रिकोणी स्थितौ तत्र ॥१८॥ धनुषा(रा)कारश्छिन्नो वारुण-वायव्य-सोमदिक्षु ततः ।
वृत्ताकृतिरीशाने पांडुस्सर्वे कुशाग्रवृताः ॥१६॥" "जिन्होंने धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति करके समस्त प्राणियोंको निःसंशय किया, जो वीर हैं अर्थात् जिन्होंने विशेषरूपसे समस्त पदार्थसमूहको प्रत्यक्ष कर लिया है, जो जिनोंमें श्रेष्ठ हैं, तथा राग, द्वेष और भयसे रहित हैं ऐसे भगवान् महावीर धर्मतीर्थके कर्ता हैं॥१६॥"
५५. शंका-भगवान महावीरने धर्मतीर्थका उपदेश कहाँ पर दिया ?
समाधान-जब महामंडलीक श्रेणिक राजा अपनी चेलना रानीके साथ सकल पृथिवी मंडलका उपभोग करता था तब मगधदेशके तिलकके समान राजगृह नगरकी नैऋत्य दिशामें स्थित तथा सिद्ध और चारणोंके द्वारा सेवित विपुलगिरि पर्वतके ऊपर बारह गणों अर्थात् सभाओंसे परिवेष्टित भगवान महावीरने धर्मतीर्थका कथन किया। कहा भी है
"पंचशैलपुर में अर्थात् पांच पहाड़ोंसे शोभायमान राजगृह नगरके पास स्थित, नाना प्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त, सिद्ध तथा चारणोंसे सेवित और सर्व पर्वतोंमें उत्तम ऐसे अतिरमणीक विपुलाचल पर्वतके ऊपर भव्यजनोंके लिये भगवान महावीरने धर्मतीर्थका प्रतिपादन किया। ऐन्द्र अर्थात् पूर्व दिशामें चौकोर आकारवाला ऋषिगिरि नामका पर्वत है। दक्षिण दिशामें वैभार और नैऋत्य दिशामें विपुलाचल नामके पर्वत हैं। ये दोनों पर्वत त्रिकोण
आकारवाले हैं। पश्चिम, वायव्य और उत्तर दिशामें धनुषके आकारवाला छिन्न नामका पर्वत है। ऐशान दिशामें गोलाकार पांडु नामका पर्वत है। ये सब पर्वत कुशके अग्र भागोंसे
(१) भुजति म-स० । (२)-तिलओ म-आ० (३) द्वादशसभानां वर्णनं हरिवंशपुराणे (२१७६-८७) द्रष्टव्यम् । (४) “देवदाणववंदिदे"-ध० सं० पृ० ६१॥ "सुरखेयरमणहरणे गुणणामे पंचसेलणयरम्म । विउलम्मि पव्वदवरे वीरजिणो अट्रकत्तारो॥"-ति० प०६४। (५) भगिरि-अ०, आ०, स०। 'चउरस्सो पुवाए रिसिसेलो दाहिणाए वेभारो। विउलम्मि पव्वदवरे वीरजिणो अट्टकत्तारो॥"-ति० ५० ११६५ । (६) त्रिकोणः स्थित्वा तत्र स०। (७)-कारश्चन्द्रो वा-स०, अ०, आ०। (८) "धनुराकारश्छिन्नो वारुणवायव्यसौम्यदिक्ष ततः।"-ध० सं०प०६२।"चावसरिच्छो छिण्णो वारुणाणिलसोमदिसविभागेसू । ईसाणाए पंडवणादो सब्वे कुसग्गपरियरणा।"-ति. प. १६७ । हरि. ३१५३-५५ ।
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