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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [१ पेज्जदोसविहत्ती तत्केवलमिति चेत्न; ज्ञानव्यतिरिक्तात्मनोऽसत्त्वात् । अर्थसहायत्वान्न केवलमिति चेत्, न; विनष्टानुत्पन्नातीतानागतेर्थे (तार्थे) ध्वपि तत्प्रवृत्युपलम्भात् । असति प्रवृत्तौ खरविषाणेऽपि प्रवृत्तिरस्त्विति चेत्, न तस्य भूत-भविष्यच्छक्तिरूपतयाऽप्यसत्त्वात् । वर्तमानपर्यायाणामेव किमित्यर्थत्वमिष्यत इति चेत्न; 'अर्यते परिच्छिद्यते' इति न्यायतस्तत्रार्थ
शंका-केवलज्ञान आत्माकी सहायतासे होता है, इसलिये उसे केवल अर्थात् असहाय नहीं कह सकते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि ज्ञानसे भिन्न आत्मा नहीं पाया जाता है, इसलिये केवलज्ञानको केवल अर्थात् असहाय कहनेमें कोई आपत्ति नहीं है।
शंका-केवलज्ञान अर्थकी सहायता लेकर प्रवृत्त होता है, इसलिये उसे केवल अर्थात् असहाय नहीं कह सकते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि नष्ट हुए अतीत पदार्थों में और उत्पन्न न हुए अनागत पदार्थों में भी केवलज्ञानकी प्रवृत्ति पाई जाती है, इसलिये केवलज्ञान अर्थकी सहायतासे होता है यह नहीं कहा जा सकता है।
__ शंका-यदि विनष्ट और अनुत्पन्नरूपसे असत् पदार्थमें केवलज्ञानकी प्रवृत्ति होती है तो खरविषाणमें भी उसकी प्रवृत्ति होओ ?
समाधान-नहीं, क्योंकि खरविषाणका जिसप्रकार वर्तमानमें सत्त्व नहीं पाया जाता है, उसीप्रकार उसका भूतशक्ति और भविष्यत् शक्तिरूपसे भी सत्त्व नहीं पाया जाता है। अर्थात् जैसे वर्तमान पदार्थमें उसकी अतीत पर्यायें, जो कि पहले हो चुकी हैं, भूतशक्तिरूपसे विद्यमान हैं और अनागत पर्यायें, जो कि आगे होनेवाली हैं, भविष्यत् शक्तिरूपसे विद्यमान हैं उसतरह खरविषाण-गधेका सींग यदि पहले कभी हो चुका होता तो भूतशक्तिरूपसे उसकी सत्ता किसी पदार्थमें विद्यमान होती, अथवा वह आगे होनेवाला होता तो भविष्यत् शक्तिरूपसे उसकी सत्ता किसी पदार्थमें विद्यमान रहती। किन्तु खरविषाण न तो कभी हुआ है और न कभी होगा । अतः उसमें केवलज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं होती है।
शंका-जब कि अर्थमें भूत पर्यायें और भविष्यत् पर्यायें भी शक्तिरूपसे विद्यमान रहती हैं तो केवल वर्तमान पर्यायोंको ही अर्थ क्यों कहा जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि 'जो जाना जाता है उसे अर्थ कहते हैं' इस व्युत्पत्तिके अनुसार वर्तमान पयायोंमें ही अर्थपना पाया जाता है। खीक्रियते, स पुनरालम्बनेन चित्तधारणकर्म । चित्तधारणं पुनः तत्रवा (तत्रैवा) लम्बने पुनः पुनश्चित्तस्यावजनम् । एतच्च कर्म चित्तसन्ततेरालम्बननियमेन विशिष्टं मनस्कारमधिकृत्योक्तम्"-त्रिशि० भा० पृ० २० । "विषये चेतस आवर्जनं (अवधारणं) मनस्कारः, मनः करोति आवर्जयतीति" -अभि० को० व्या० २।२४ । अक० टि० पृ० १५६ । “चित्ताभोगो मनस्कारः" इत्यमरः ।
(२) "अर्यत इत्यर्थः निश्चीयत इत्यर्थः"-सर्वार्थ. श२।
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